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पाषा
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विजात्यसद्भूत व्यवहारनय है। जिसतरह देश राज्य किला आदि मेरे हैं। यहांपर देश आदिके कहने से उनमें रहनेवाले मनुष्य तिथंच आदि जीव और मद्दल कुंवा आदि अजीव दोनों प्रकार के पदार्थोंका ग्रहण है। उनमें मनुष्य आदि आत्मांके स्वजातीय और महल कुवां आदि विजातीय हैं इसलिये देश आदि मेरे हैं इस स्थानपर स्वजातीय विजातीय दोनों प्रकार के पदार्थों को मेरा कहना स्वजातिविजात्यु पचरिताद्भूत व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार निश्चय व्यवहार और उनके भेद द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक और नैगम आदि नयोंका संक्षेपरूपसे यहां कुछ वर्णन किया गया है विशेष श्लोकवार्तिक नयचक्र आलापपद्धति आदिसे समझ लेना चाहिये । निश्रयनयके कितने भेद हैं और वे क्यों हैं ? तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक कें कितने भेद हैं । यह सब भी उपर्युक्त ग्रंथोंमें अच्छी तरह खुलासा किया गया है । नय सात ही क्यों हैं ? श्लोकवार्तिककारने यह विषय बहुत ही स्पष्ट किया है और सप्तभंगीमार्गद्वारा नयोंके बहुतसे भेद बतलाये हैं विस्तार के भेदसे यहां नहीं लिखा गया है । असल में किसी अभिप्राय विशेषको नय कहते हैं, जितने अभिप्राय हो सकते हैं उतने ही नय कहे जा सकते हैं इसलिये अभिप्रायोंके भेद अनंत होनेसे नयवाद भी अनंत है । वे स्थूलरूप से परिणत किये जाते हैं इसलिये संख्याते नय है ।
ज्ञानदर्शनयोस्तत्त्वं नयानां चैवं लक्षणं । ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितं ॥ १ ॥
१। मुद्रित ग्रन्थों में 'ज्ञानदर्शनयोस्तत्रं नयानां चैव लक्षणं' यह पाठ मिलता है परन्तु 'तभ्वं' यह जुदा पद कहनेपर कुछ अर्थमें भी अपूर्वता नहीं भाती दूसरे प्रथमाध्याय में तव पदार्थका भी वर्णन किया गया है यदि यहां पर 'तत्त्वं' यह जुदा पद माना जाता है तो प्रथमाध्यायके वर्णनीय पदार्थोंके उल्लेखमें तस्व शब्दका उल्लेख छुट जाता है इसलिये 'तवनयानी' यह समस्त पाठ अच्छा
अध्याय
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