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________________ धातुके अर्थ द्योतन करनेवाले होते हैं भेद करनेवाले नहीं होते इसलिये उपसर्गों के भेदके रहते भी अर्थ भिन्न नहीं होता, एक ही रहता है । परन्तु यह उनका कहना ठीक नहीं। क्योंकि यदि उपसर्ग पदार्थों के अर्थका भेदक नहीं है- धातुका जो अर्थ है उसीका द्योतन करनेवाला है तो ' तिष्ठति' का अर्थ तो ठहरना होता है और 'प्रतिष्ठते' का अर्थ गमन करना होता है । यहांपर स्थिति और गति दोनों क्रियाओंका ऐक्य हो जाना चाहिये परन्तु वैसा हो नहीं सकता इसलिये उपग्रह व्यभिचारकी निवृत्ति के लिये भी जो वैयाकरणोंने परिहार दिया है वह भी बाधित है । इस उपर्युक्त आलोचनासे यह बात सिद्ध हो चुकी कि लिंग आदिके भेदसे पदार्थ भिन्न हैं और उस भेदका प्रकाश करनेवाला शब्दमय है । इसप्रकार यह शब्दनयका वर्णन हो चुका । अब क्रमप्राप्त समभिरूढ नयंका स्वरूप कहा जाता है नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः ॥ १० ॥ अनेक अर्थोको छोडकर प्रधानता से जो एक ही अर्थमें रूढ- प्रसिद्ध हो - उसी अर्थ को विषय करने वाला हो वह समभिरूढ नय है । खुलासा तात्पर्य यह है कि जिसतरह तीसरा सूक्ष्मक्रिय नामका शुक्लध्यान अर्थ व्यंजन और योगोंकी पलंटन के अभाव से अवीचार और अवतर्क होनेसे सूक्ष्मकाय योग में रहनेके कारण सूक्ष्मक्रिय है अर्थात् सुक्ष्मक्रिय ध्यान ' १ उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यः प्रतीयते । महाराहारसंहारविहारपरिहारवत् ॥ १ ॥ अर्थात् उपसर्गके बलसे जबरन घातुका अर्थ बदल जाता है जिस तरह एक ही हृ धातुका उपसर्ग वळसे प्रहार आहार आदि नेक अर्थ हो जाते हैं । यदि उपसर्ग अर्थका भेदक न माना जायगा तो इस श्लोक सम्बन्धी सिद्धांत को मिथ्या कहना होगा ।: अध्याय
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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