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________________ रा०रा० भाषा ४८५ इसलिये दोनों कालोंके एक होनेपर उन दोनोंका कार्य भी एक हो सकता है तो उसका उत्तर यह है कि उपचारसे कालका अभेद मानकर भविष्यतकालके कार्यको भूतकालका कार्य मान भी लिया जाय तब भी वह वास्तविक रूपसे एक नहीं माना जा सकता, औपचारिक ही रहेगा इसरीतिसे वैयाकरण लोगोंने व्यवहाररूप हेतु प्रदर्शनकर जो 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनितेत्यादि' यहाँपर भूत भविष्यत् दोनों कालोंको एक मानकर भविष्यतकाल के कार्यका भूतकालमें होना वास्तविक बतलाया था और व्यभि चारका परिहार किया था वह असंगत सिद्ध हो गया इसलिये शब्द नयकी अपेक्षा कालभेदसे पदार्थोंका भी भेद होने के कारण वहां आपस में संबंध होना बाधित है । तथा 'करोति' यह कर्ता में प्रत्यय है और 'क्रियते' यह कर्ममें प्रत्यय है यहां पर कर्ता और कर्म कारकका भेद है परंतु वैयाकरणों का यह कहना है कि " स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचित् ” वही कुछ करता है और वही किसीके द्वारा किया जाता है ऐसी संसारमें प्रतीति होती है इसलिये कर्ता कर्म दोनों | एक ही हैं। आपस में एक दूसरेकी पर्याय हो सकते हैं एवं कारक व्यभिचार दोष नष्ट हो जाता है। वह भी अयुक्त है । यदि कर्ता और कर्मका अभेद मान लिया जायगा 'देवदत्तः कटं करोति' देवदत्त चटाई बनाता है यहां पर भी कर्ता देवदच और कर्म चटाईको एक मानना पडेगा इसलिये उपर्युक्त प्रतीतिसे कर्ता कर्मको एक मानकर कारक व्यभिचार दोषका परिहार करना वैयाकरणोंका बाघित और अयुक्त है । तथा'पुष्यं तारका' यहां पर यद्यपि पदार्थमें भेद नहीं क्योंकि पुष्य नक्षत्र तारकाओंसे जुदा नहीं परंतु पुष्य शब्द नपुंसकलिंग है और तारका शब्द स्त्रीलिंग है इसलिये लिंगके भेदसे आपस में दोनों शब्दों अध्याये १ gs
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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