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________________ FORECASIOGRESSFSARNUARO हार होगा इसलिये उपयुक्त दोषोंको यहां स्थान नहीं मिल सकता ? सो भी ठीक नहीं। फिर सत्ताके संबंधसे 'सत' व्यवहार होता है, इस संसर्गवादको छोड देना होगा क्योंकि सत्ता विना ही अन्य सत्ता के संसर्ग-संबंधके यहां वादी सत व्यवहार स्वीकार कर रहा है। इससे वादीको यह भी मानना पडेगा है कि जिसप्रकार सत्ताका व्यवहार, विना पर सचाके संबंधके स्वयं होता है उसीप्रकार सत्, द्रव्य, घट इनका भी स्वयं व्यवहार हो जायगा उनके लिये भिन्न जातियोंका संबंध मानना व्यर्थ क्यों नहीं है ? ॐ तथा जहां जैसा दोष देखा वहां वैसी ही मनगढंत कल्पना करलेना इच्छामात्र कल्पना कही जाती है । यहां पर सचाके 'सत्' व्यवहारके लिये अनवस्था प्रतिज्ञाभंग आदि दोष दीख पडे तो उनको दूर करने 8 के लिये द्रव्यादि पदार्थोंमें शक्तिके संबंधसे 'सत्' व्यवहार मान लिया और सत्तामें स्वयं मान लिया यह हूँ कल्पना करली परंतु वास्तविक बात क्या है ? यह नहीं विचारा इसलिये अनवस्था आदि दोषोंके दूर । है करनेके लिये जो द्रव्य आदि पदार्थोंमें भिन्न भिन्न शक्तियों के संबंधसे सत् व्यवहार माना है और सवा है में स्वयं सत्' व्यवहार की कल्पना की है यह मन गढंत कल्पना कही जायगी जो कि अप्रामाणिक है। तथा और भी यह वात है कि भिन्न पदार्थ स्वरूप सचाका जो द्रव्य आदिमें रहना माना है 'सोऽस्पेति' वह जिसका हो अर्थात् ६ सचा जिस पदार्थकी हो इस बहुव्रीहि समासके आधीन माना है वा 'सोऽयं' वह यह है अर्थात् सत्ता स्वरूप है इस कर्मधारय समासके आधीन माना है ? यदि बहुव्रीहि समासके आधीन मानी जायगी तो सत् शब्दसे मत्त्वर्थीय 'मतु' प्रत्ययका विधान होनेसे गोमान धवमान जिसपकार इन शब्दोंका सिद्ध स्व. रूप है उसीप्रकार सत्की जगह पर 'सचावान' यह सिद्धस्वरूप होना चाहिये किंतु 'सहव्य' यह जो है ALSHSEBERROWISHERSIRSSBIKA35 ५६६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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