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________________ तस्येंद्रियमनोहेतुसमुद्भू तिनियामतः । इंद्रियानिंद्रियाजन्यस्वभावावधिः स्मृतः ॥ १३ ॥ मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं, मतेद्रिया नद्रिया नीमच कत्वनियमात् । श्रुतस्यानिंद्रियनिमित्तकत्त्वनियमात् । द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थः । कुतः ? असंशयादिद्रिययानिंद्वियाजन्यस्वभावः प्रोक्तः संशयो हि चलिताप्रतिपत्तिः किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इति । स च सामान्य प्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुभयविशेषस्मरणात् प्रजायते । दूरस्थे च वस्तुनि इंद्रियेण सामान्यतश्च सन्निकृष्टसामान्यप्रत्यक्षत्वं विशेषाप्रत्यक्षत्वं च दृष्टं, मनसा च पूर्वानुभूततदुभयविशेषस्मरणेन । न चाव व्युत्पत्तौ कचिदिंद्रियव्यापारोऽस्ति मनोव्यापारो वा स्वावरणक्षयोपशमविशेषात्मना सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः स्वविषयस्य तेन ग्रहणात् । ततो न संशयात्मावधिः । विपर्ययात्मा तु मिथ्यात्वोदयाद्विपरीतवस्तुस्वभाव श्रद्धान सहभावात् संबोध्यते । तथानध्यवसायात्माप्याशु उपयोगसंहरणाद्विज्ञानांतरीपयोगाद्गच्छत्तृणस्पर्शवदुत्पाद्यते । दृढोपयोगावस्थायां तु नावधिरध्यवसायात्मापि । (श्लोकवार्तिक पृष्ठ २५६ ) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानोंमें मतिज्ञान इंद्रिय और मन से होता है इसलिए उसके विपरिणाम संशय विपर्यय और अनध्यवसाय तीनों मिथ्याज्ञान हैं एवं श्रुतज्ञान मन इंद्रिय की सहायता से होता है इसलिए उसके भी विपरिणाम संशय आदि तीनों मिश्रयाज्ञान हैं किंतु अवधिज्ञान के विपरिणाम विपर्यय और अनध्यवसाय ही हैं, संशय नहीं क्योंकि यह 'स्थाणु है वा पुरुष है ?' ऐसी अनेक कोटियों को स्पर्श करनेवाले ज्ञानका नाम संशय है और जहांपर अंधकार रहने से दूरमें स्थित
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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