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________________ CIC RECEBOBERSONALESALMANOHARDAGA धारक पुरुषों में भी किन्हीं किन्हींके होता है सबोंके नहीं होता इसप्रकार मनःपर्ययज्ञानकी उत्पचिमें विशिष्ट संयमका ग्रहण प्रधान कारण बतलाया है । परंतु अवधिज्ञान देव मनुष्य तियच और नारकी है चारों गतियोंके जीवोंके होता है इस रूपसे अवधि और मनःपर्ययके स्वामियोंका भेद होनेसे भी दोनों में 8 ज्ञानोंमें भेद है॥२५॥ । मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधि ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इस प्रकार चारों प्रकारके ज्ञानोंका वर्णन हो चुका अब क्रमप्राप्त केवल ज्ञान है आर उसका वर्णन होना चाहिए परंतु उसका वर्णन 'मोहक्षया ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच केवलं' इस सूत्रसे दशवें अध्यायमें किया है। यहाँपर किस किस ज्ञानका , | कितना कितना विषय है ? यह बतलानकी बडी आवश्यकता है इसलिए यहां क्रमप्राप्त केवलज्ञानका हूँ वर्णन न कर सब ज्ञानोंके विषयका वर्णन किया जाता है। उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय इस प्रकार है मतिश्रुतयोनिबंधो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥२६॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका जाननेका संबंध द्रव्योंकी असर्व-कुछ पर्यायोंमें है । अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान जीवादि छहौ द्रव्योंको तो जानते हैं परंतु उनकी समस्त पर्यायोंको नहीं जानते-थोडी थोडी पर्यायोंको ही जान सकते हैं। सूत्रों जो निबंध शब्द है उसका अर्थ संबंध है और 'निबंधनं निबंध' यह उसकी व्युत्पचि है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषयका संबंध द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंमें है, यह निबंध शब्दके प्रयोगसे स्पष्ट BAISARLACESSFERSARIURIS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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