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________________ विषय भूत पुद्गलस्कंधोंके रूप आदि भेदोंको और जीवों के परिणामस्वरूप औदयिक औपशमिक और क्षायोपशमिक भावोंको नारकियोंका अवधिज्ञान विषय करता है । इसप्रकार भवप्रत्यय अवधिज्ञा नका निरूपण हो चुका ॥२१॥ यदि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है तो क्षयोपशमकारणक अवधिज्ञान किनके होता है ? इस विषयमें सूत्रकार कहते हैं क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणां ॥ २२॥ देव और नारकियोंसे अवशिष्ट मनुष्य और तिर्यंचोंके जो अवधिज्ञान होता है वह कर्मोंके क्षयोपशमसे होता है और उसके अनुगामी अननुगामी आदि छह भेद हैं । सूत्रमें जो क्षयोपशम शब्द है उसका अर्थ इसप्रकार है अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोंका उदय सर्वघाती स्पर्धकोंका उदयाभावी क्षय और आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वघाती स्पर्घकोंका सदवस्थारूप उपशम ऐसी कर्मको अवस्थाका है नाम क्षयोपशम है । इस कर्मोंके क्षयोपशमसे जायमान अवधिज्ञान मनुष्य और तियचोंके होता है। विशेष शक्तिके जिस अंशका विभाग न हो सके उस अविभागी अंशका नाम अविभाग प्रतिच्छेद है। ए समान अविभाग प्रतिच्छेदोंके धारक प्रत्येक कर्मपरमाणु का नाम वर्ग है । वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं | १-जो कर्म विना फल दिये खिर जाय उसे उदयामावी क्षय कहते हैं। BRECEMBERASHISRUSSES 3URRECRUICIDESIRES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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