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________________ अध्यार तरा० भाषा १७९ 434ABARABANANASA व्याख्यानाद्विशेषप्रतिपचिः' शास्त्रोंमें जैसा वर्णन रहता है उसीके अनुकूल पदार्थ विशेषोंका ज्ञान होता है। शास्त्रोंमें अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टियोंके ही कहा है । मिथ्यादृष्टियोंके नहीं इसलिए मिथ्यादृष्टि देव और | नारकियोंके अवधिज्ञानका विधान नहीं माना जा सकता । शंका-- आगमे प्रसिद्धेर्नारकशब्दस्य पूर्वनिपात इति चेन्नोभयलक्षणप्राप्तत्वाद्देवशब्दस्य ॥६॥ | जीव आदिके निरूपण करते समय, सत् संख्या आदिके निरूपण करते समय वा अनुयोगके कथन करने पर देवोंकी अपेक्षा नारकियोंका पहिले वर्णन किया है इसलिए 'भवप्रत्ययोवधिः' इत्यादि । सूत्रमें भी नारकियोंका ही देवोंसे पहिले उल्लेख करना उचित है ? सो नहीं। जिस शब्दमें थोड़े स्वर से होते हैं और जो उत्तम होत है उसका पहिले उल्लेख किया जाता है यह व्याकरणका सर्वमान्य सिद्धांत है। नारककी अपेक्षा देव शब्दमें थोड़े स्वर हैं और उसकी अपेक्षा देव शब्द उचम भी है इसलिए है नारक और देव शब्दोंमें देवका ही पहिले उल्लेख होगा नारक शब्दका नहीं हो सकता। तथा शास्त्रमें जीव स्थान आदि प्ररूपणाओंमें नारकियोंका पहिले वर्णन है और देवोंका पीछे है इसलिए सूत्रमें देव | शब्दका पहिले उल्लेख न कर नारक शब्दका ही करना चाहिए यह युक्ति भी अनियमित है क्योंकि | जिसका शास्त्रमे पहिले वर्णन है उसका जहां कहीं भी उल्लेख किया जाय वहां सबसे पहिले उल्लेख करना | चाहिए यह कोई नियम नहीं । बहुतसे शब्दोंका शास्त्रोंमें पहिले वर्णन है और उनका पीछे प्रयोग होता | 8. दीख पडता है इसलिए पूर्वोक्त व्याकरणके नियमानुसार नारक और देव शब्दोंमें देव शब्दका ही पूर्व 5 उल्लेख न्यायप्राप्त है। ६३७९ तीव्र और मंद रूपसे जैसा जैसा क्षयोपशम होता है उसीकी अपेक्षा अवधिज्ञान भी हीन और CELCASTLECRECEReoHOOLGACCOREALLAGES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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