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________________ दाबचाव खरा० भाषा ३४ AACARPETECANSAASARAMAILOISANSAR ६ हैं। इंद्रियों के अपने अपने विषयोंके जाननेमें अनेक प्रकारके प्रयोजन भी विद्यमान हैं फिर क्या बात || पता है कि पांचों इंद्रियोंसे एक साथ ज्ञान नहीं होता। यह शंका होने पर कहना होगा कि पांचों इंद्रियोंके || विषय भूत पदार्थों के साथ युगपत् मन संबंध नहीं करता किंतु क्रम क्रमसे संबंध करता है इसलिए एक || साथ पांचों इंद्रियोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती, क्रम क्रमसे ही होती है । इसलिए एक साथ ज्ञानोंकी | अनुत्पत्ति रूप हेतुसे मन पदार्थका निश्चय हो जाता है। तथा जो पदार्थ एक बार देख लिया जाता है वा सुन लिया जाता है कालांतरमें उसका स्मरण होता है यह बात सिवाय मनके दूसरेसे नहीं हो सकती है। और होती हुई अनुभवमें आती ही है इसलिए कभी मनका अभाव नहीं माना जा सकता इसरीतिसे || प्रत्यक्षके विषय न भी होने वाले पदार्थों की सत्ताका जब अनुमानसे निश्चय हो जाता है तब यद्यपि मन पदार्थ परोक्ष है तो भी उसका अभाव नहीं माना जा सकता। यदि कदाचित् यह शंका की जाय कि | आत्मा एक है उसके अनेक करण कैसे हो सकते हैं ? उसका समाधान इस प्रकार है ज्ञस्वमावस्यापि करणभेदोऽनेककलाकुशल-देवदत्तवत् ॥९॥ एक ही देवदत्त जिस समय चित्र क्रियामें प्रवृत्त होता है उससमय उसे चित्रके कारण सलाई कलम और कुची आदि उपकरणोंकी अपेक्षा करनी पड़ती है। जिस समय वह किसी काठके कार्यमें प्रवृत्त होता है उस समय उसे बसूला हथौडा और आरेकी अपेक्षा करनी पडती है इसलिए एक ही देवदत्तको जिस | प्रकार अनेक करणोंकी अपेक्षा रहती है उसी प्रकार एक भी आत्माको क्षयोपशमके भेदसे ज्ञान करानेमें | शक्तिमान चक्षु आदि अनेक करणाकी अपेक्षा करनी पड़ती है अर्थात-जिस समय आत्मा रूप आदिको १ युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंग प्रथ० अ०म० आ० पृ० २३ न्यायदर्शन । 55AAAAABानवाछARA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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