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________________ अध्याय P अनुकूल होना चाहिये परन्तु मनके अनुकूल इंद्रियोंका अधिष्ठान माना नहीं जा सकता क्योंकि तुमने D मनको अणु पदार्थ माना है और चक्षुका किरण समूह सर्वत्र फैला हुआ माना है इसलिये इतने विशाल ॐ किरण समूहरूप चक्षुका अणुकी बराबर मन कभी अधिष्ठान नहीं बन सकता। इस रीतिसे इंद्रियोंका बाह्य अधिष्ठान होनेसे वे सांतर और अधिकका ग्रहण कर सकती हैं यह नहीं कहा जा सकता। अब टू यदि यहांपर यह शंका की जाय किद कर्ण इंद्रियसे दूरवर्ती शब्दका ग्रहण होता है। उस शब्द तक कर्ण इंद्रिय पहुंच नहीं सकती इस है लिये कर्णइंद्रिय भी अप्राप्यकारी है-शब्दके पास न जाकर ही उसे ग्रहण करनेवाली है ? सो ठीक नहीं। है कर्णइंद्रिय प्राप्यकारी है वा अप्राप्यकारी है यह वात तो पीछे निश्चित होगी पहिले ये विकल्प उठते हैं 9 कि वह दूरवर्ती शब्दको ग्रहण करती है कि नासिका इंद्रियके समान भिडकर अपने विषयरूप परिणत है , शब्दको ग्रहण करती है ? यदि यह कहा जायगा कि दूरवर्ती शब्दको ग्रहण करती है तब किसी कारण 9 से जब कान के भीतर मच्छर घुस जाता है और वह जब बिल बिलाकर शब्द करता है तब कानसे सुन पडता है परन्तु अब नहीं सुना जाना चाहिये क्योंकि ऐसी कोई भी इंद्रिय नहीं जो दूरवर्ती पदार्थको भी ग्रहण करे और समीपवर्तीको भी ग्रहण करै । कानके भीतर रहनेवाला मच्छरका शब्द तो विलकुल कानसे स्पृष्ट है । यदि कदाचित् यहां यह कहा जाय कि-शब्द आकाशका गुण हैं और आकाश अमूतिक पदार्थ है इसलिये शब्दमें स्पर्श गुण न रहनेके कारण वह स्पृष्ट नहीं कहा जा सकता ? सो भी ठीक है नहीं। यदि शब्दको अमूर्तिक आकाशका गुण माना जायगा तो जिस तरह अमूर्तिक आत्माके गुणों १ शन्दगुणकमाकाशं' अन्नमदृ । BAAREEDOESCREASORRECIECARROTECRETRIOTIS Facts ECISTABPLI ३३८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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