SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय SANGAGESHPEGGo 15| उनका उससे ग्रहण नहीं हो सकता ? सो भी ठीक नहीं। चुबक पत्थरसे यह वात खंडित हो जाती है । || क्योंकि चुंबक पत्थर पास न जा कर लोहेको ग्रहण करता है परंतु व्यवहित और अत्यंत दूर रक्खे हुए |६|| लोहेको नहीं खीचता अर्थात् चुंबक पत्थर भी अप्राप्यकारी है उससे भी व्यवहित और अत्यंत दूर रक्खे | पदार्थका ग्रहण होना चाहिये परंतु सो होता नहीं इसलिये चक्षुको अप्राप्यकारी माननेपर भी व्यवहित | और अतिविप्रकृष्ट पदार्थके ग्रहणका दोष नहीं लागू हो सकता। क्योंकि वादी यह दोष दे रहा है-चक्षु को अप्राप्यकारी माननेसे व्यवहित और अत्यंत दुरमें स्थित पदार्थका भी उससे ग्रहण होना चाहिये। परंतु चुंबक पत्थररूप दृष्टांतसे यह वात सिद्ध होती है कि अप्राप्यकारी होनेपर भी चुबंक पत्थरसे । 5 व्यवहित और विप्रकृष्ट लोहेका उससे ग्रहण नहीं होता इसलिये यह संशय ही हो जाता है कि अप्राप्य| कारी पदार्थ से व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थका ग्रहण होता है या नहीं ? इसरीतिसे चक्षुके अप्राप्यकारी | || माने जाने पर उससे व्यवहित और अत्यंत दूरमें स्थित पदार्थों का ग्रहण ही होता है यह निश्चय नहीं है किया जा सकता। यदि यहांपर फिर यह शंका की जाय कि जब चक्षुको अप्राप्यकारी माना है तब ॥ संशय और विपरीत नामक जो मिथ्या ज्ञान होते हैं वे न होने चाहिये क्योंकि चक्षुका पदार्थके पास JP जाना तो माना नहीं गया इसलिये जब उससे ज्ञान होगा तब यथार्थ ही ज्ञान होगा ? सो भी अयुक्त है। || यह दोष तो चक्षुको प्राप्यकारी माननेमें भी तदवस्थ है क्योंकि जब चक्षु पदार्थके साथ जाकर संबंध |8|| करेगा तो यथार्थ पदार्थके साथ ही करेगा अयथार्थके साथ नहीं इसलिये उसे प्राप्यकारी माननेमें भी हा संशय और विपर्ययका अभाव है। चक्षुको प्राप्यकारी सिद्ध करनेके लिये अन्यतरहसे शंका . जिसतरह अमि पदार्थ तेजस है इसलिये उसमें किरणें हैं एवं वे किरणें पदार्थोंपर जाकर पडती हैं 555ASABALEKASIRSASABRISPURE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy