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सम्यग्ज्ञान कहा जायगा सो भी नहीं क्योंकि सम्यग्ज्ञानमें पदार्थविशेषके आकारका आश्रय रहता है। दर्शनमें किसी भी पदार्थ विशेषका आश्रय नहीं इसलिये दर्शनसे ज्ञान पदार्थ भिन्न है । और भी यह बात है कि
कारणनानात्वात्कार्यनानात्वसिद्धेः॥ १४॥ विना मिट्टीके घडा तयार नहीं हो सकता इसलिये घटकी उत्पत्तिमें असाधारण कारण मिट्टी और है विना तंतुओंके पट उत्पन्न नहिं हो सकता इसलिये पटकी उत्पचिमें असाधारण कारण तंतु हैं इसरीतिसे
अपने अपने कारणोंकी जुदाईसे जिसतरह घट और पट जुदे जुदे हैं उसीतरह दर्शनकी उत्पचिमें दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम कारण है और ज्ञानकी उत्पचिमें ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम कारण है इसतरह अपने अपने कारणों की जुदाई होनेसे दर्शन और ज्ञान भी भिन्न भिन्न पदार्थ हैं। दोनों कभी एक नहीं हो सकते । दर्शनादिकी उत्पत्तिका क्रम इसप्रकार है
पहिले ही पहिले 'यह कुछ है' ऐसा दर्शन होता है । उसके बाद यह रूप है' इसप्रकारका अवग्रह हूँ ज्ञान होता है अवग्रहके पीछे वह रूप सफेद है वा काला ? इसप्रकारका संशयज्ञान होता है क्योंकि यहां पर किसी भी पदार्थकी निश्चित प्रतीति नहीं उसके बाद यह रूप शुक्ल होना चाहिए' ऐसी शुक्लरूपकी
आकांक्षा होनेसे ईहाज्ञान होता है उसके वाद 'यह रूप शुक्ल ही है कृष्ण नहीं' ऐसा निश्चायक ज्ञान ॐ अवाय ज्ञान होता है । एवं अवायके पीछे जिस पदार्थका अवायज्ञानसे निश्चय हो चुका है उसका कालातरमें न भूलना रूप धारणाज्ञान होता है। यहां पर जो अवग्रह आदिका क्रम वर्णन किया गया है वह 5 १ जो भाव अवायमें निश्चयरूपसे जाना जाता है उसी यथार्य मावकी ओर ईहा मान झुक जाता है । इसलिये वह सम्यग्वान है।
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