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अध्याय
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आनंद्रियं मनोऽनुदरावत् ॥२॥ मन जिसको कि अंतःकरण भी कहा जाता है वह अनिद्रिय पदार्थ है। यदि यहाँपर यह कहा जाय कि 'जो इंद्रिय न हो वह अनिद्रिय है' यह अनिद्रिय शब्दका अर्थ है इसलिये जिसतरह 'अब्राह्मण-8 मानय' इत्यादि स्थलोंमें ब्राह्मण जातिसे भिन्न जातिवाले मनुष्यका बोध होता है और वहां ब्राह्मणको हूँ। न बुला वैश्य आदिको बुला दिया जाता है उसी तरह अनिंद्रिय ऐसा कहनेपर इंद्रियसे भिन्न घट पट हूँ
आदिका ही बोध हो सकता है आत्माके लिंगस्वरूप मनका बोध नहीं हो सकता इसलिये अनिद्रिय है | का अर्थ मन नहीं लिया जा सकता ? सो ठीक नहीं। जिसतरह अनुदरा कन्या' यहांपर जिसके पेट | नहीं है वह यह कन्या है यह अर्थ नहीं लिया जाता क्योंकि सर्वथा पेटरहित कन्याका होना ही संसार | में असंभव है किंतु इस कन्याका पेट बहुत ही सूक्ष्म है इसलिये यह गर्भका भार नहीं वहन कर सकती | यह उस 'अनुदरा' शब्दका अर्थ लिया जाता है उसी तरह-जो सर्वथा इंद्रिय नहीं है वह अनिद्रिय है | यह अनिद्रिय शब्दका अर्थ नहीं किंतु जिस प्रकार नेत्र आदि इंद्रियोंका रहनेका स्थान और पदार्थों के || जाननेकी अवधि निश्चित है उस प्रकार मनका रहनेका स्थान विषयोंके जाननेकी अवधि निश्चित नहीं किंतु वह अपने रहनेका स्थान और पदार्थोके जाननेकी अवधिसे रहित होकर ही आत्माको पदार्थोंके । ज्ञान करानेमें लिंग है इसलिये 'जो ईषत् इंद्रिय हो वह अनिद्रिय-मन है' यह अनिद्रिय शब्दका अर्थ | है। ऊपरका दृष्टांत जो शंकाकारकी ओरसे दिया गया है वह भी सिद्धांतानुकूल ही घटित होता है जैसे | अब्राह्मण कहनेसे ब्राह्मण भिन्न ब्राह्मण सदृश वैश्य क्षत्रिय वर्णवाले मनुष्यका ही ग्रहण किया जाता है
न कि ब्राह्मण भिन्न घट पट आदि जड द्रव्योंका। उसीप्रकार इंद्रिय भिन्न कहनेसे इंद्रिय भिन्न इंद्रिय २९२, | तुल्य-मनका ही ग्रहण किया जाता है न कि इंद्रियभिन्न किसी अनुपयोगी पदार्थका । तथा
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