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________________ Sataleaks अर्थकारण है उसके मत में यह नियम भी माना जा सकेगा कि जहां पर शब्द तो एक है और अर्थ अनेक हैं वहां पर शब्दाभेद - एक ही शब्द के रहने से वे सब अर्थ भी एक ही हैं इसरीति से एक ही गो शब्द वाणी पृथ्वी गाय आदि नौ अर्थ हैं उन सबको एक ही मानना पडेगा परंतु गोशब्द के वे सब अर्थ भिन्न भिन्न हैं इसलिये उन्हें एक नहीं माना गया - नौ ही अर्थ माने गये हैं इसलिये जिसतरह शब्द के अभेद रहने पर अर्थोंका अभेद नहीं माना जाता उसी तरह शब्दों के भेद रहते अर्थका भी भेद नहीं माना जा सकता । तथा आदेशवचनात् ॥ ६॥ वास्तव में मति आदिका आपसमें कथंचिद्भेदाभेद है क्योंकि जिसतरह इंद्र- आदि अनेक शब्द एक ही शचीपति अर्थके बोधक हैं इसलिये एक द्रव्य पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वे सब एक हैं किंतु जिससमय प्रतिनियत पर्यायार्थिक नयको विवक्षा की जाती है उससमय ऐश्वर्यका भोक्ता होने से इंद्र, समर्थ होने से शक और पुरोंका विदारण करने से पुरंदर इसप्रकार ये भिन्न भिन्न पर्याय शब्द हैं इसलिये प्रतिनियत पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा इंद्र आदि अनेक भी हैं । उसीतरह मति आदिमें जिससमय एक द्रव्यपर्याय नयकी विवक्षा की जायगी उससमय मति स्मृति आदि एक ही मतिज्ञानरूप अर्थके बोधक हैं इसलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा एक हैं और जिससमय प्रतिनियत पर्यायार्थिक नयकी विवक्षा की जायगी उससमय मानना मति, याद करना स्मृति, पूर्व और उत्तर अवस्थाका एकरूप ज्ञान संज्ञा, व्याप्ति 'ज्ञान होना चिंता और स्वयं हेतुसे साध्यका जान लेना अभिनिबोध इसप्रकार मति आदिका भेद भी इसलिये पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मति आदिक आपसमें भिन्न भिन्न अनेक भी हैं । अतः मति ল৬লত अध्याय १ २८६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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