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अध्याय
अत एव प्रमाणत्वाभाव इत्यनुपालंभः॥७॥ किन्हीं मनुष्योंका यह उपालंभ था कि जिसके द्वारा पदार्थोंका निश्चय किया जाय वह प्रमाण है | परोक्ष तो परोक्ष ही है-जाना नहीं जा सकता इसलिये उसके द्वारा किसी पदार्थका निश्चय नहीं हो है सकता अतः परोक्ष कोई प्रमाण ही नहीं ? वह भी दूर हो गया क्योंक अपनी उत्पत्तिमें इंद्रिय और है| मन आदिकी अपेक्षा रखनेके कारण मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष माना गया है, ज्ञानका न होना है | परोक्ष नहीं इसरीतिसे जब परोक्ष ज्ञानसे पदार्थों का निश्चय होता है तब परोक्ष ज्ञानको प्रमाण माननेमें | कोई आपत्ति नहीं हो सकती इसलिये प्रत्यक्ष ज्ञानके समान परोक्ष ज्ञान भी प्रमाण है ॥११॥
इसप्रकार परोक्ष प्रमाणका लक्षण कह दिया गया उससे भिन्न जितने ज्ञान हैं सब प्रत्यक्ष हैं यह बात सूचित करनेकेलिये सूत्रकार सूत्र कहते हैं
प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ ___मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके सिवाय जो बाकीके अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान हैं वे हा प्रत्यक्ष हैं । वार्तिककार प्रत्यक्षका लक्षण कहते हैं
इंद्रियानिद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षं ॥१॥ स्पर्शन रसना प्राण चक्षु और श्रोत्रके भेदसे इंद्रिय पांच हैं और अनिद्रियका अर्थ मन है। 15 जो ज्ञान चक्षु आदि इंद्रिय और मनकी अपेक्षासे रहित हो वह ज्ञान, तथा अवास्तविक पदार्थको वास्त
विक मानना व्यभिचार कहा जाता है जिसतरह सीपको चांदी मानना इसलिये जो ज्ञान इसप्रकारके ६) व्यभिचारसे रहित हो वह एवं जो सविकल्पक हो वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधिज्ञान मनःपर्य
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