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________________ अध्याय भाषा पहिला है इसलिये मतिज्ञानके समान श्रुतज्ञानका भी आदि शब्दसे ग्रहण हो सकता है कोई दोष नहीं ? | सो भी अयुक्त है। क्योंकि यदि इसप्रकार उत्तरकी अपेक्षा पूर्वकी कल्पना की जायगी तो एक केवल | है ज्ञानके सिवाय सभी ज्ञान पहिले पड जायगे फिर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान हीका क्यों ? आदि शब्दसे २५७ सभीका ग्रहण होगा और अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानको भी परोक्ष कहनेका प्रसंग आवेगा इसलिये अवधि आदिकी अपेक्षा श्रुतज्ञान आदि-पूर्व नहीं कहा जा सकता किंतु प्रारंभमें पढा जानेवाला ||5| मतिज्ञान ही पहिला कहा जायगा । यदि कदाचित् यहांपर भी यह समाधान दिया जाय कि 'आये || 4 परोक्षं यहांपर 'आद्य' यह द्विवचन है इसलिये मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोहीका ग्रहण किया जा सकता || है। है अवधि आदि सबका ग्रहण न होगा इसलिये कोई दोष नहीं हो सकता ? सो भी ठीक नहीं। यदि उत्तरकी अपेक्षा पहिलेको आदि मानाजायगा तो केवलज्ञानके पहिलेके सभी ज्ञान पूर्व कहे जायगे इस लिये वहां पर यह शंका ज्योंकी त्यों रहेगी कि आये' इस शब्दसे मति और श्रुतज्ञान इन दोका ग्रहण होगा वा श्रुत और अवधिज्ञान इन दोका वा अवधि और मनःपर्यय इन दोका इसलिये अवधि आ की अपेक्षा जब श्रुतज्ञान कभी आदि-पहिला नहीं कहा जा सकता तब आदि शब्दसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनोंका कभी ग्रहण नहीं किया जा सकता ? सो ठीक नहीं। 'आये यह द्विवचनका निर्देश किया गया है और दो ज्ञानोंका ग्रहण किया गया है यहां पर मतिज्ञान आद्य है क्योंकि सूत्रमें सबसे पहिले मतिज्ञानका पाठ है और उसके समीपमें श्रुतज्ञान है अन्य अवधि आदि कोई ज्ञान नहीं इसलिये समीपमें रहनेवाले श्रुतज्ञानका ही ग्रहण हो सकता है अवधि आदिका नहीं। श्रुतज्ञानको प्रथमपना यहां उपचारसे है वास्तवमें तो मतिज्ञान ही प्रथम है इस रीतिसे जब मति और श्रुत दोनोंको प्रथम BABASAHASRAHASRECCASIA SCAASARAMARAGAAAAA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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