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________________ A * * भाषा * ** *** - सांख्य सिद्धान्तमें भी पुरुषका ज्ञान करण नहीं हो सकता क्योंकि उसमें बुद्धि ज्ञान प्रकृतिका 8 विकार स्वरूप हैं, इंद्रिय मन अहंकार और महत्त्वके व्यापारसे उत्पन्न है, सचा और विकल्परूपी | अभिमानकी परिणातस्वरूप है तथा पुरुष शुद्ध निष्क्रिय नित्य निर्विकारस्वरूप माना है । संसारमें यह वात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि जो कर्ता क्रियावान होता है वही करणका प्रयोग करता दीख पडता है जिस | तरह 'देवदत्त तलवारसे शिर छेदता है यहांपर क्रियावान ही देवदत्त कर्ता परशु करणको उठाकर शिर है | में मारता दीख पडता है । सांख्यमतमें पुरुषको क्रियाराहित माना है इसलिये करणके साथ उसका किसी | प्रकारका संबंध न होनेके कारण उसका ज्ञान करण नहीं कहां जा सकता। ज्ञानको कर्ता भी नहीं माना। जा सकता क्योंकि देवदच तलवारसे शिर छेदता है यहांपर तलवार करणरूपसे संसारमें प्रसिद्ध है और 18 जब वह खूब पैनी भारी कठिन आदि उचित विशेषोंसे युक्त होनेसे सुन्दर जान पडती है उस समय तलवारकी प्रशंसामें यह कह दिया जाता है कि “वाह यह तलवार खूब अच्छी तरह छेदन क्रिया हूँ & करती है" इस रीतिसे तलवारमें कर्ताके कार्यका आरोपण कर उसे कर्ता कह दिया जाता है। ज्ञानमें इस रूपसे काके कार्यका अध्यारोप नहीं किया जा सकता क्योंकि तलवार जिसतरह करणरूपसे । । संसारमें प्रसिद्ध है उस तरह ज्ञान करणरूपसे प्रसिद्ध नहीं। यदि प्रसिद्ध न होनेपर भी हठात उसे करण || माना जायगा तो जो ऊपर ज्ञानको करण माननेमें अनेक दोष कह आए हैं उन दोषोंके कारण वह || करण न हो सकेगा इसलिये ज्ञान किसी रूपसे कर्तृसाधन नहीं कहा जा सकता। ज्ञानको भावसाधन भी। का नहीं मान सकते क्योंकि जिस पदार्थमें विकृत होनेकी शक्ति है उसीका भाव विकार होता दीख पडता १ इसका खुलासा ऊपर कह आए हैं। ** GECENAMEACHEREGEBABA ABOBASSADA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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