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________________ KCEKORBONSARSA ॐ शब्दका बाहर अर्थ है । 'अंतरे शाटिका' (शाटिका- परिधानीया) साड़ी. पहिननी चाहिए यहाँपर अंतर शब्दका परिधान पहिनना अर्थ है । 'अनभिप्रेनोतृजनांतरे मंत्र मंत्रयते' जो सुननेवाले अनिष्ट ६ -आपचि खडी कर देनेवाले हैं उनके विरहमें अर्थात् उनके न रहनेपर सला मसोदा करता है, यहां पर अंतर शब्दका अर्थ विरह है । सूत्रमें जो अंतर शब्द है उसका छेद मध्य और विरह इन तीनों अर्थों-हूँ हूँ मेंसे किसी एक अर्थका ग्रहण है अर्थात् एक शरीरको छोड कर जिससमय जीव दूसरे शरीरको धारण हूँ करनेके लिए गमन करता है वहांपर पहिले शरीरसे निकलकर जबतक दूसरे शरीरको ग्रहण नहीं कर लेता बीचमें ही आकाशकी श्रेणियों में रहता है उसको मध्य भी कह सकते हैं, छेद भी कह सकते है हैं और विरह भी कहते हैं, इसलिए अंतर शब्दका तीनों ही प्रकारका अर्थ मान लेना अयुक्त नहीं। अथवा ___ अनुपहतवीर्यस्य न्यग्भावे पुनरभृतिदर्शनात्तद्वचनं ॥८॥ जिसकी शक्ति नष्ट नहीं हुई है ऐसी द्रव्यको किसी कारणसे पहिली पर्यायके नष्ट हो जाने पर * फिर किसी अन्य कारणसे उसी पर्यायके उत्पन्न होनेसे जो समयका व्यवधान पडता है वह विरहकाल है। है परिणामप्रकारनिर्णयार्थ भाववचनं ॥९॥ .: औपशमिक क्षायिक आदि भावोंका आगे जाकर निर्णय करना आवश्यकयि है इसलिए सूत्रमें भाव शब्दका उल्लेख किया गया है। संख्याताद्यन्यतमनिश्चयेप्यन्योन्यविशेषप्रतिपयर्थमल्पबहुत्ववचनं ॥१०॥ __जिन पदार्थों का एक दो तीन संख्यात असंख्यात और अनंत रूपसे निश्चय हो चुका है उन पदा GHATAREKORANGAIRTE २०५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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