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________________ EASREPHERBARICOLAIJRANGILCOHORICHEMES हर एक पदार्थ हर एक पदार्थका विरोध करनेवाला हो जायगा इस गीतसे अभेद और भेद दोनों पक्षों में की अपेक्षा जब सहानवस्थान लक्षण विरोध नाम आदिमें विरोध करनेवाला सिद्ध नहीं होता तव उसे ? जबरन विरोध करनेवाला बतलाना युक्तिविरुद्ध है। ताद्गुण्याद् भावस्य प्रामाण्यमिति चन्नतरव्यवहारनिवृत्तेः ॥ २६ ॥ जीवन आदि गुण वा सम्यग्दर्शन आदि गुण जिसमें विद्यपान हों वह तद्गुण कहा जाता है हूँ तद्गुणका जो भाव-वर्तमानमें उसी रूपसे रहना ताद्गुण्य-तद्गुणपना कहलाता है इस रीतिसे हर है एक पदार्थमें भावकी ही घनिष्ठता होनेसे वही प्रधान है उसीके द्वारा लोकका व्यवहार सिद्ध हो सकता है है नाम आदि निक्षेप माननेकी कोई भी आवश्यकता नहीं क्योंकि उनमें तद्गुणपना नहीं है ? सो अयुक्त है है। जिस तरह भावकी अपेक्षा होनेवाला व्यवहार अनुभवमें आता है उसीप्रकार नाम स्थापना आदि * की अपेक्षा होनेवाला व्यवहार भी अनुभवमें आता है यदि नाम आदिको न माना जायगा तो उनकी & अपेक्षा होनेवाले व्यवहारका लोप ही हो जायगा इस रीतिसे केवल भावकी ही प्रधानता न होकर नाम र आदिकी भी प्रधानता है इसलिये उनका अभाव नहीं कहा जा सकता। यदि यह कहा जाय कि उपचारादिति चेन्न तद्गुणाभावात् ॥२७॥ जिस तरह सिंहो माणवक अर्थात् बालक सिंह है यहांपर यद्यपि बालक सिंह नहीं हो सकता है तो भी क्रूरता शूरता आदि गुणोंकी कुछ समानता रहनेसे उसे उपचारसे सिंह कह दिया जाता है उसी . * तरह प्रधान तो भाव ही है और उससे होनेवाला व्यवहार ही प्रामाणिक और प्रधान है तथापि उपचार से नाम आदिको मानकर उनसे होनेवाला व्यवहार भी हो सकता है वह निवृच नहीं हो सकता ? सो SCHORUSAHARASHTRAUCHGGXXAS HAYA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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