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तत्पूर्वकत्वाईधस्य ततःपरं बंधवचनं ॥२४॥ बंध आस्रवपूर्वक होता है-कर्मके आने पर ही उनका आत्माके साथ संबंध हो सकता है इसलिये आस्रवके बाद बंधतत्त्वका निर्देश किया गया है।
संवृतस्य बंधाभावात्तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्थ संवरवचनं ॥२५॥ जो आत्मा संवर अवस्था धारण कर लेता है अर्थात् जिसके किसी भी कर्मका आसूव नहीं होता है है उसके फिर बंध नहीं होता इसगीतसे संवर तत्व, बंधका विरोधी है यह बतलानेकेलिये बंधके बाद संवरका उल्लेख किया गया है।
संवरे सति निजरोपपत्तेस्तदनंतरे निर्जरावचनं ॥ २६॥ जिससमय नवीन काँके आगमनका रुक जाना रूप संवर हो जाता है उसके बाद निर्जरा होती है इसलिये संवरके बाद निर्जराका उल्लेख किया है।
. अंत प्राप्तत्वान्मोक्षस्यांते वचनं ॥२७॥ ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों के सर्वथा नष्ट हो जानेपर सबसे अंतमें जाकर मोक्ष प्राप्त होती है इसलिये सब तत्वोंके अंतमें मोक्षतत्व रक्खा है। यदि यह शंका की जाय कि
पुण्यपापपदार्थोपसंख्यानमिति चेन्नासूवे बंधे वांतर्भावात् ॥ २८॥ पुण्य और पाप दोनों पदार्थों का उल्लेख शास्रोंमें मिलता है अन्य सिद्धांतकारों ने भी पुण्य पाप 8 पदार्थ जुदे माने हैं इसलिये 'जीवाजीवासवेत्यादि सूत्रमें जीव और अजीव आदिके समान उनका भी
१ नैयायिक और वैशेषिक धर्म और अधर्म जुदे पदार्य स्वीकार करते हैं धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य और पाप है।
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