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________________ भाषा BURISPEECRECORROREVENUGREECREACHECRECRUA बुद्धिपूर्वक क्रियारूप हेतु न रहनेसे वह हेतु नहीं, हेत्वाभास है इस गीतसे अजीवका जो भी लक्षण है। कहा है निर्दोष है। पुण्यपापागमहारलक्षण आसवः ॥१६॥ पुण्य पाप-शुभ अशुभ रूप कर्मों के आनेका द्वार आस्रव कहा जाता है आस्रवके समान होनेसे 3 इसे आस्रव कहा गया है क्योंकि जिसतरह अगणित नदियोंके द्वारा रात दिन समुद्रका जल पूर्ण किया । जाता है इसलिये समुद्रके जलके पूरण करनेमें नदियां आस्रवस्वरूप हैं उसीतरह मिथ्यादर्शन अविरति ॐ आदिके द्वारा सदा कर्म आत्मामें आते रहते हैं इसलिये मिश्यादर्शन आदि आस्रव कहे जाते हैं। आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणो बंधः॥१७॥ मिथ्यादर्शन अविरति आदि कारणोंसे आत्मामें बंधे हुए कर्म प्रदेशोंका और आत्माके प्रदेशोंका, जो आपसमें एकमएक हो जाना है वह बंध है। बंघका अर्थ बंधना है बँधनाके समान होनेसे इसे बंध, कहा गया है क्योंकि जिसतरह वेडी वा रस्सी आदिसे बंधा हुआ देवदच परतंत्र हो जानेके कारण अपने अभिलषित स्थानपर नहीं जा सकता वहीं पडा रह कर अत्यंत दुःख भोगता रहता है उसीतरह हूँ कर्मरूपी बंधनसे बंधा हुआ आत्मा भी परतंत्र हो जानेके कारण संसारमें पडा रहनेसे शारीरिक मानहूँ सिक अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता रहता है। आसवनिरोधलक्षणः संवरः ॥१८॥ पूर्वोक्त मिथ्यादर्शन आदि द्वारोंका जो शुभ परिणामोंसे रुक जाना है वह संवर है । संवरका अर्थ |११२ 5 रुक जाना है। संवरके समान होनेसे इसे संवर कहा गया है क्योंकि जिसतरह जिस नगरके दरवाजे के FERISPERABHASRAEPISATISFAISALA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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