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सन्रा० भाषा
११.3
| उत्कृष्ट स्थानरूप संक्रमित होनेसे परस्थान संक्रम नामका विकल्प होता है अर्थात् कृष्णलेश्या यदि अ-18|| धिक तीव्रता धारण करेगी तब तो वह अपने-कृष्ण लेश्याके ही उत्कृष्ट स्थान तक पहुंचेगी, क्योंकि
कृष्ण लेश्यासे आगे बढ़कर कोई लेश्या ही नहीं है, इसलिये वृद्धि में तो वह स्वस्थान परिणाम ही धारण ||६|| ME|| करेगी। परन्तु हानिमें घटते घटते अपने रूपं भी रहेगी तथा नील लेश्याके उत्कृष्ट स्थान तक पहुंच ||
॥ जायगी इसलिये हानिमें स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रम होंगे। यह कृष्ण लेश्याकी अपेक्षा कथन किया है। या गया है इसप्रकार अन्य लेश्याओंमें भी संक्रम भेदोंका विधान समझ लेना चाहिये । विशेष इतना है कि
जिस समय शुक्ललेश्याकी विशुद्धिकी वृद्धि होगी उस समय शुक्ललेश्याका दूसरी लेश्यारूप || संक्रमण नहीं होगा क्योंकि उसके आगे और कोई लेश्याका भेद नहीं किंतु अपने स्वरूप शुक्ललेश्यामें 8| 1 डी अनंतभाग आदि स्वरूप संक्रमण होगा इसलिये वृद्धिकी अपेक्षा शुक्ललेश्यामें स्वस्थान संक्रमणरूपी
ही विकल्प होगा और जिस समय संक्लेशकी वृद्धि और विशुद्धिकी हानि होगी उस समय स्वस्थान है। संक्रम और परस्थानसंक्रम दोनों भेद होंगे अर्थात् विशुद्धिकी हीनता होनेपर संख्यातभाग वृद्धिरूपा | आदि परिणत होनेसे स्वस्थान संक्रम होगा और अनंत गुणी हानि होते होते जिससमय पद्म लेश्याका | परिणमन होगा उस समय परस्थानसंक्रम भी होगा इससीतसे शुक्ललेश्यामें वृद्धिकी अपेक्षा केवल ll | स्वस्थान संक्रम भेद और डानिकी अपेक्षा स्वस्थानसंकूम और परस्थान संकम ये दोनों भेद हैं किन्तु
बीचकी जो चार लेश्याएं हैं उनमें वृद्धि हानि दोनोंकी अपेक्षा स्वस्थान संक्रम और परस्थान संक्रम ..|| दोनों भेद हैं अर्थात् अनंतगुण वृद्धि होते होते भी दुसरी लेश्यारूप संक्रमण हो सकता है और अनंत ||११०
गुण हानि होते होते भी दूसरी लेश्यारूप संक्रमण हो सकता है।
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