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अध्याय
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सरा यहाँपर द्वंद्व गर्मित बहुव्रीहि समाम है । यदि यहांपर यह कहा जाय कि-पीतपद्मशुक्ललेश्या' यहांपर पापा द्वंद्व समास किया जायगा तो द्वंद्व में पुंबद्भाव तो होगा नहीं इसलिए 'पीतपद्मशुक्ल लेश्या' यह जो पुंव(१०९५/६ भावविशिष्ट निर्देश किया गया है अर्थात आकारका अकार कर दिया गया है वह अयुक्त है किन्तु ||
Mil यहाँपर 'पीतापद्माशुक्ललेश्या' ऐसा निर्देश करना चाहिये ? सो ठीक नहीं। यहां पुंवद्भाव नहीं हुआ है | • किंतु उत्तर पद रहनेसे पूर्वपदको हस्व हुआ है जैसे "द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलंबितयोरुपसंख्यानं". PARI इस व्याकरणशास्त्रकी वार्तिकमें 'मध्यमा च विलंबिता च मध्यमविलंबिता. तयोः' इस द्वंद्वसमासयुक्त |
गदमें विलंबिता' उचर पद रहनेसे 'मध्यमा' शब्दको इस्त्र कर निर्देश किया गया है उसीपकार 'पीत| पद्मशुक्ललेश्याः ' यहाँपर भी 'शुक्ला उचरपदके रहते पीता और पद्मा इन दोनों पदोंमें इस्व निर्देश न्याय्य है अथवा जहां पर जैसी व्यवस्था होती है वहां पर उसीके अनुसार विपरिणमन हो जाता है। पीतपझेत्यादि स्थलपर इस्व आवश्यक है इसलिए यहां पुंवद्भाव न समझकर औचरपदिक ह्रस्व ही समझना चाहिए। किन किन देवोंके कौन कौन लेश्यायें होती है वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
सौधर्मेशानीयाः पीतलेश्याः॥२॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में रहनेवाले देवों के पीत लेश्या है।
__ सानत्कुमारमाहेंद्रीया देवाः पीतपालश्याः॥३॥ मानकुमार और माडेंद्र स्वर्गनिवासी देवों के पीत और पद्म दो लेश्यायें हैं। १-पीतपद्मशुक्लानां द्वंद्व पीतपायोरुत्तपदिकं स्वत्वं, द्रुतायां त(पात १)रकरणान्मध्यमविलंबितयोस्पसंख्यानमित्याचार्यपचनदर्शनाव, मध्यमाशब्दस्य विलंवितोत्तरपदे द्वेऽपि इन्वत्वसिद्धेः । श्लोकवातिक पृष्ठ ३८४ ।
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