SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1023
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Sotes अवेयक आदिका आगे उल्लेख किया जायगाउसका कल्पवासियों में अंतर्भावन समझा जाय इसलिये | सूत्रमें 'कल्पोपपन्नपर्यंत' शब्दका उल्लेख किया है । अर्थात् सोलह स्वर्ग पर्यंतके देवोंको कल्पवासी कहा | PI अध्याय जाता है इसलिये बारह भेद उन्हींके हैं। सोलहवें स्वर्गके ऊपर देव कल्पातीत हैं. उनका अंतर्भाव इन बारह भेदोंके भीतर नहीं है । वार्तिककार कल्पशब्दपर विचार करते हैं इंद्रादिविकल्पाधीनकरणत्वात्कल्पा रूढिवशात ॥३॥ ___आगेके सूत्रमें इंद्र सामानिक आदि दश भेद कहे जायगे। जहां पर उन दश भेदोंकी कल्पना हो । है उन स्थानोंको कल्प कहा जाता है। सौधर्म ऐशान आदि आगे कहे जानेवाले सोलह स्वर्गों में इंद्र आदि है। दश भेदोंकी कल्पना है इसलिये उनकी कल्प संज्ञा है। शंका___ भवनवासी देवोंमें भी इंद्र सामानिक आदिदश भेदोंकी विद्यमानता है अतः यदि यह कहा जायगा कि जहाँपर इंद्र आदि दश भेदोंकी कल्पना हो उस स्थानका नाम कल्प है तब भवनवासी देवोंके रहने । के स्थानको भी कल्प कहना होगा इसरीतिसे सोलह स्वर्ग ही कल्प नहीं कहे जासकते किंत भवनवा-|| सियोंके रहने के स्थान खरभाग आदि भी कल्प कहे जायगे ? सो ठीक नहीं । वार्तिकमें 'रूढिवशात् ।। इतना विशेष पद और भी दिया है अर्थात् जिस स्थानका कल्प यह नाम रूढ हो वही स्थान कल्प कहा जासकता है अन्य नहीं । सोलह स्वर्गोंका ही कल्प यह नाम रूढिसे है, भरनवासियोंके रहने के स्थानका नहीं इसलिए सोलह स्वर्ग ही कल्प कहे जासकते हैं, भवनवासियोंके रहनेके स्थान नहीं। कल्प-स्वर्गों में जो उत्पन्न हों उन्हें क्ल्पोपपन्न कहते हैं और जहांपर कल्पोपपन्न तकके देवोंका ग्रहण हो वे कल्पोपपन्नपर्यंत कहे जाते हैं। कल्पेषु उपपन्नाः कल्पोपपन्नाः' यहाँपर सप्तमी तत्पुरुष समा १२६ - AASPASABALASSAURBACAECES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy