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________________ AAAA अथ चतुर्थोध्यायः। अध्याय त०रा० भाषा १९३ 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां' इत्यादि स्थलोंपर कई बार देव शब्दका उल्लेख किया गया है परंतु | यह बात नहीं मालूम हुई कि कौनसे तो वे देव हैं ? और कितने हैं ? इसलिए उन देवों के नित्रयार्थ ||६|| सूत्रकार सूत्र कहते हैं अथवा सम्यग्दर्शनके विषयभून जीव और उनके त्रप्त स्थावर रूप भेद ऊपर कहे || गये हैं उनके निश्चयार्थ जीवके आधारस्वरूप अघोलोक और तिर्यग्लोककी रचना तो कह दी गई। अब इससे भी विशेष प्रतिपादनकेलिए ऊर्ध्वलोकका प्रतिपादन करना चाहिये । ऊलोकमें बहुतसी ॥ कहने योग्य बातें हैं उनमें ऊर्ध्वलोकके स्वामियों के प्रतिपादनपूर्वक उनके आधारों के विभागका निर्णय Mा होता है इसलिए सूत्रकार सबसे पहिले ऊर्धलोकके स्वामियों का निरूपण करते हैं देवाश्चतुर्णिकायाः॥१॥ देव चार प्रकारके हैं अर्थात देवोंके चार समूह हैं । भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क और वैमानिक । देवगतिनामकर्मोदये सति द्युत्याद्यर्थावरोधाद्देवाः॥१॥ देवगति नामकर्मका उदयरूप अंतरंग कारणके रहते और झुति आदि वाह्य कारणों के रहते जो सदा देदीप्यमान रहें उनका नाम देव है । शंका___ जातिवाचक एकवचनांत भी शब्द बहुत पदार्थों का प्रतिपादक माना जाता है। 'देवाश्चतुर्णिकाया'ला ९९३ | यहाँपर भी देव शब्द जातिवाचक है इसलिए 'देवाश्चतुर्णिकायाः' इस वहुवचनांत देव शब्द के स्थानपर A AAAACAREADABADSHAHR GURURAHALALABUSPACLE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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