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________________ ८७ जो स्वामीजी जैनोंको अन्य मतके द्वेषी बतलाते हैं यह उनका अपूर्व साहस है ! संसारभरके धर्मोकी जी खोलकर निंदा करते हुए भी स्वामीजी स्वयं तो अन्य मतोंसे सहानुभूति रखनेवाले चनें, और जैनोंको अन्य मतके विरोधी बतलावें ! पाठक महोदय ! क्षमा कीजिए, यह उनकी निरंकुशता नहीं तो क्या है ? हम नहीं समझते कि, स्वामीजीके अनोखे जीवनको आंखे मीचकर न्यायके संचेमें ढला हुआ बतलानेवाले कितनेक समाजी महाशय अन्यायका केंद्र किस जंगलकी चिड़ियाको समझ रहे हैं । सज्जनो ! जैनों तथा जैन ग्रंथोंपर लगाये हुए स्वामीजीके असभ्य अपवाद कहांतक सत्य हैं इसके संबंधमें हम अपनी तर्फसे कुछ भी न कहकर केवल जैनतत्त्वादर्श नामके ग्रंथका कुछ पाठ उद्धृत करते हैं. आशा है कि, इसको (उक्त पुस्तकसे उद्धृत किये हुए पाठको) ध्यान पूर्वक पढ़नेसे सत्यासत्यकी छानवीन करनेका आपको बहुत ही शीघ्र समय मिलेगा! उक्त ग्रंथके निर्माता परलोकवासी जैनाचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरि उर्फ* आत्मारामजी हैं. जैन शास्त्रोंद्वारा गृहस्थ धर्मका वर्णन करते हुए आपने लिखा है कि-- “अब परतीर्थ-अन्यमतवालोंसे (जैन गृहस्थका) ." उचित व्यवहार लिखते हैं. यदि भन्यधर्मके (अर्थात् भिक्षु) "भिक्षाके वास्ते (जैन गृहस्थ के ) घरमें आवे तो उनका " उचित सत्कार करना, तथा राजाका एवं अन्य माननीय " (पुरुषों) का योग्य सत्कार करना, यथायोग्य दान देना, “ यदि उन साधुओंपर भक्तिभाव न भी हो तो भी घरमें इस वीसवीं सदीमें जैन समाजमें आप एक नामांकित विद्वान् और प्रामाणिक पुरुप होगए हैं। dar
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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