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________________ 'नमः॥ ॥ॐश्रीवी ॥ मध्यस्थवादग्रंथमालायाः प्रथमं पुष्पम् ॥ स्वामीदयानन्द और जैनधर्म" - सत्यं ज्ञानमनन्तं य-निमयेऽगायत थुती । आत्मानन्दं गतहन्दं, विश्रुतं तं श्रयामहे ।।१।। मनरसाधु वात्साधु, तर्यस्य महात्मनः शान्तये सर्वभूतानां,तं प्रियं भक्तितो नुमः ॥२॥ -- - तैमान आर्यसमाजके नेता " स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी " बड़े नामांकित पुरुप हो गये हैं! MAKA इनका जीवन वैदिक धर्मकी उन्नतिमें ही समाप्त हुआ है ! संसारगे ऐसे मनुष्य बहुत थोड़े निकलेंगे, जिन्होंने स्वामीजी की तरह वैदिक धर्म में असीम प्रेम बतलाया हो : वैदिक धर्म पर आते हुए आक्षेपों के निराकरण में स्वामीजीने अपनी शक्ति से भी अधिक परिश्रम कर दिखलाया है ! यह बात उनके रचे हुए पुस्तकों से विदित होती है ! स्वामीजी जैसे साहसी पुरुष संसार, बहुत कम हैं ! इसीलिये वर्तमान जनसमाजमें उन्हें कुछ सफलता भी प्राप्त हुई ! ___ स्वामीजीके सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रंथो के देखनेका हमे बहुत शौक था, और अब भी है ! इनपर विचार करने के लिये पथाशक्ति परिश्रम भी किया. है ! स्वामीजी के अन्य ग्रंथों की 'अपेक्षा सत्यार्थप्रकाश कुछ अधिक प्रसिद्ध है ! यह ग्रंथ चतुर्दश (१४) समुल्लासोंमें विभक्त है, जिसमें से इससमय, वारवें मुल्लासके संबंध हमे कुछ कहना है.हमारा आशय स्वामीजी ।१
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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