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________________ माना जाय तब तो संयोगके विनाश अर्थात् अभावको मुक्तिका कारण अवश्य स्वीकार करना होगा, जिस वस्तुका कोई कारण है वह अवश्य ही अनित्य होती है. मालूम होता है कि, इसी कारणसे स्वामीजीने मोक्षको अनित्य स्वीकार किया है ! देशक ! स्वामीजीके मतसे तो इस प्रकार मानना टीक है! क्योंकि, वे मोक्षको कर्मजन्य मानते हैं ! नगर शोक : कि, उन्होंने इस नवीन उच्छंखल मंतव्यमें एक भी स्थिर प्रमाणना उल्लेख नहीं किया !! स्वामीजीने जैन मतपर आक्षेप करते हुए मुक्तिनी अनित्यतामें जिस प्रमाणका उपन्यास किया है, उसपर यदि स्वामीजी थोडासा भी विचार कर लेते तो " लेने गई पूत और खो आई खसम " वाली मिसाल उनको बहुत ही शीघ्र याद आए विना न रहती ! और संभव था कि, वे खपाद कुठारके तीन आघातसे कदापि बच जाते! क्योंकि बानीजीने जीव, प्रकृति और ईश्वर इन तीन पदार्थोत्रो नित्य स्वीकार किया है. इनके नित्य होनेमें हेतु, मात्र उनके कारणका अभाव ही कह सकते हैं; परंतु जिस प्रकार कौके संयोग विनाशको मोक्षका कारण माननेपर स्वामीजी उसको अनित्य वतलाते हैं, इसी प्रकार ईश्वर, जीव और प्रकृतिके नित्यसमें भी उनके कारणका अभाव रूप कारण होनेसे इन विचारोंकी नित्यता भी स्वामीजीकी सतिसे मोक्षकी तरह थोडे ही दिनके लिए ठहर सकेगी ! एवं प्रतिबंधकके अभावको निमित कारण मानकर वस्तुमें अनित्यत्व व्यवस्थापन करनेवाले स्वामीजी 'महारानको न्यायशास्त्रका कितना अधिक परिचय होगा यह भी विचारणीय है!
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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