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________________ ४६ [घ] इस लिये जैनी लोग अपने पुस्तकोंकों किन्ही विद्वान् अन्य मतस्योंको नहीं देते क्योंकि जिनको ये लोग प्रामाणिक तीर्थंकरों के बनाये हुए सिद्धांत ग्रंथ मानते हैं उनमें इसी प्रकारकी अविद्यायुक्त बातें भरी पड़ी हैं इस लिये नहीं देखने देतें जो देवे तो पोल खुल जाय इनके विना जो कोई मनुष्य कुछ भी बुद्धि रखता होगा वह कदापि इस गपोडाध्यायको सत्य नहीं मान सकेगा । [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४२२ ] " [च] 4 यह सभ प्रपंच जैनियोंने जगत् को अनादि मानने के लिये खड़ा किया है परंतु यह निराझूट है हां जगत्का कारण अनादि है. क्योंकि परमाणु आदि तत्व स्वरूप अकर्तृक हैं. परंतु उनमें नियमपूर्वक बनने वा बिगडेने का सामर्थ्य कुछ भी नहीं क्योंकि जब एक परमाणु द्रव्य. किसीका नाम है और स्वभावसे पृथक् रूप और जड़ हैं वे अपने आप यथायोग्य नहीं बन सकते इसलिये इनका बनानेवाला चेतन अवश्य है वह बनानेवाला ज्ञानस्वरूप है देखो पृथिवी सूर्यादि सभ लोकों को नियममें रखना अनंत अनादि चेतन परमात्माका काम है जिसमें संयोग रचना विशेष दीखता है वह स्थूल जगत् अनादि कभी नहीं हो सकता इत्यादि [ सत्यार्थ प्र. पृ. ४२३ ] [ छ ] इन जैन लोगों को स्थूल बातका भी यथावत् ज्ञान नहीं तो परमः सूक्ष्म सृष्टि विद्याका बोध कैसे हो सकता है ? [ स. प्र. ४२३: ] [ग]. समालोचक- हमारे ख्यालमें न तो जैन भूले और न - अन्य लोग, किंतु स्वामी महोदय ही भूल रहे हैं ! अस्तु !
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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