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________________ -- -... - जिसमें ये तीनो धर्म नहीं वह वस्तुही शशशृंग के समान है। * वस्तुके स्थिर रहने परभी उसमें उत्पत्ति और नाश हुआ करता है. पदार्थमें जो स्थिरांश है उसको द्रव्य और अस्थिरांशको । जैन मतमें पर्याय कहते हैं. जैन सिद्धांतमें पदार्थ मात्रको द्रव्य और पर्यायरूप-नित्यानित्य-माना है. अर्थात् द्रव्यरूपसे जीवा-. जीवादि सब पदार्थ नित्य हैं । और पर्याय रूपसे अनित्य हैं। परंतु द्रव्य और पर्याय भी आपसमें सर्वथा भिन्न नहीं, किंतु एक दूसरेकी अपेक्षासे कहनेमें आते हैं. अर्थात् द्रव्यकी अपेक्षासे पर्याय, और पर्यायकी अपेक्षा सेद्रव्य, कहाजाता है. .क्योंकि, वस्तुमात्र परस्पर सापेक्ष्य है. किसी व्यक्तिमें पुरुष, शब्दका निर्देश किया जाता है तो स्त्री शब्दकी अपेक्षासे ही किया जाता है, एवं किसी व्यक्तिमें स्त्री शब्दका व्यवहार भी. पुरुष शब्दकी अपेक्षाके विना नहीं हो सकता, दिन कहा तो रात्रिकी अपेक्षा हुई । पंड़ित कहा तो मूर्खकी अपेक्षा हुई । इसी तरह घट, अघटकी अपेक्षासे; सत्य, असत्यकी अपेक्षासे; पिता, पुत्रकी अपेक्षासे; बहिन, भाईकी अपेक्षासे; तथा प्रकाश, अंधकारकी अपेक्षासे; बंध, मोक्षकी अपेक्षासे; इत्यादि सर्व व्यवहार अपेक्षासे ही किया जा सकता है। संसारमें अपेक्षाके विना वस्तुका निर्देश वंध्यापुत्र के समान है, ऐसा जैनशास्त्रका सिद्धांत है। जैनोंके इस अपेक्षावाद-स्याद्वाद-सिद्धांतका स्वीकार प्रत्येक दर्शनकारने किसी न किसी. रीतिसे अवश्य किया है ! जो कि, कहीं अन्यत्र प्रदर्शित किया जायगा। . पाश्चात्य विद्वान्-मि. 'सर विलियम' और 'हेमिल्टन, ' ने मध्यस्थ विचारोंके विशाल मंदिरका. आधार जैनोंके इस . ‘अपेक्षावादको ही माना है । जैनमतमें अपेक्षावादका ही दुसरा
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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