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________________ १३८ सज्जनो ! सिद्धांत प्रभृति सदग्रंथोंको यमुना नदीम वहाने और भट्टोजी दीक्षित जैसे असीम उपकारी आचार्योंको नीच कहकर उनकी पूजनीय प्रतिमाका जूतोंसे निरादर करनेवाले अंधे गुरुके चेले, स्वामी दयानंद सरस्वतीजी, जैनाचार्योंको यदि वेश्यागामी बतलावे तो कुछ आश्चर्य नहीं ! क्योंकि, " आकके पड़से कभी आम नही टपका करते" !!! " पास समालोचनार्थ कदापि न भेजा करें । पक्षपातके विना " न्यायपूर्वक पुस्तकके गुण दोप वर्णन करना प्रत्येक समालोच. "कका प्रधान कर्त्तव्य होना चाहिये । परंतु खेद है कि द्विवेदीजी " इस वातको कभी कभी बिलकुल भूल जाते हैं। आर्य " समाजके ऊपर तो उनके क्रोधकी मात्रा दिन प्रतिदिन " बढ़ती जाती है। अभी हालमें आपने एक पुस्तककी " समालोचना करते हुए श्री स्वामी दयानंदजी सरस्वतीके गुरु " महर्षि विरजानन्दजी प्रज्ञाचक्षुके ऊपर गंदे शब्दोकी बौछाड़ " करके अपनी महावीरताका प्रचण्ड परिचय दे डाला है। " ऐसी दशामें हमारी सम्मति है कि कोई आर्यग्रंथकार " अपनी पुस्तकोंको वहां न भेजें।" आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त बुलन्द शहर । विन ६-१०-१४. ( मदनमोहन सेठ '.A. L. L. B. मंत्री सभा. सजनो ! मेघपटलाच्छन्न सूर्यकी तरह व्यक्तिगत रागांधकारसे; कर्तव्य पथ प्रदर्शक ज्ञानशक्तिके लुप्त हो जानेपर, मनुष्य किस मार्गका अवलंबन करता है ? और अंधश्रद्धा, गुणदोषके विचारसे उसे किस तरह वंचित रखती है ? उक्त प्रस्तावके पढ़नेसे यह बखूबी समझमे आ सकता है । अस्तु ! जिन महानुभावोंने यह प्रस्ताव प्रकाशित किया है उनको उनकी अनन्य गुरु भक्तिके उपलक्षमें जितना धन्यवाद दिया जाय उतना ही कम है !! .
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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