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________________ १३६ . ही अवलम्बित हो तो स्वामी दयानन्द सरस्वतीके बनाये ग्रन्थ भी अशुद्ध हैं, क्योंकि वे भी नये हैं और सम्प्रदायिक भावसे खाली नहीं। न्याय मुक्तावली और पञ्चदशी आदि तो वनावटी ज्योतियाँ हैं और आपकी ऋग्वेद भाष्य भूमिका और सत्यार्थ प्रकाश ? वे तो शायद सृष्टिके आरम्भमें आप ही आप उत्पन्न हुए ज्वालामाली सूर्य हैं ! स्वामी विरजानन्दने इस तरहकी बातें यदि कही भी हों, तो भी लेखकको समझबूझ कर शब्द प्रयोग करना था। प्रतिष्ठित जनों के मुखसे ऐसी बातें निकलना अच्छा नहीं होता। ऋषियों और मुनियोंको ही शुद्धताका ठेका परमेश्वरके यहांसे नहीं मिला। मनुष्य भी शुद्धाचारी और शुद्ध लेखक हो सकते हैं। विक्षिप्तकी तरह बर्रानेसे ऋषियों और महर्षियोंका भी आदर नहीं होता और विचारपूर्वक बात कहनेसे मनुष्य भी श्रद्धाभाजन हो सकता है। . . एक और अवतरण सुन लीजिए: "दण्डी विरजानन्दने यह निश्चय कर लिया था कि भागवतादि पुराणों और सिद्धान्त आदि अनार्ष ग्रन्थोंने संसारमें अत्यन्त मूर्खता और स्वार्थपरताका राज्य फैला रखा है। इसी कारण वे इन भ्रष्ट ग्रन्थोंके कर्ताओंकी ओरसे अपने विद्यार्थिओंको अत्यन्त घृणा दिलाना चाहते थे। तथा च इस कार्यकी पूर्त्तिके लिए उन्होंने एक जूतां रख छोड़ा था और सिद्धान्त कौमुदीके कर्ता भट्टोजी दीक्षितकी मूर्तिको वे सब विद्यार्थिओंसे जूते लगवाते थे "[पृष्ट २०] छि० छि० ! कहां तो सन्यास-व्रत और कहां ऐसा जघन्य काम! जिस कौमुदीकी बदौलत ही इस जूते बाज स्वामीको अष्टाध्यायी पढ़नेकी अक्ल आई उसीके कर्ताका इतना अपमान ! कृतघ्नता की हद हो गई ! विवेककी इति श्री हो गई ! ऐसे ही ऐसे ऋषि-जनोचित कार्योंके उपलक्ष्यमें आर्य समाजके अनुयायियोंने इस नेत्र हीन वैयाकरणको भी ऋषिकी पदवी
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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