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________________ भवती हुई अग्नि को शांत करनेके लिये जलका उपयोग किया जाता है, यदि जलसे ही अग्नि निकलने लगे तो फिर उपायांतर क्या ? दुःख केवल इतनी बातका है कि यह ललित लेखमाला उन महात्माकी है जिनका प्रशस्त जीवन उन्नति के अभिलाषियों को अनुकरणीय समझा जाता है ! अस्तु! अब हम पाठकों का स्वामीजी महाराजकी लेखमालासे उद्धृत किये हुए वाक्यों में से सबसे प्रथम वाक्यपर थोड़ासा ध्यान खचते हुए अपने प्रस्तुत विषयका प्रारंभ करते हैं । सज्जनी ! सत्य एक ऐसी वस्तु है कि, जिसका सादृश्य संसारभरके किसी पदार्थ में भी नहीं है ! सत्यकी मनुष्य के लिये इतनी आवश्यकता है जितनी कि प्रकाशक लिये सूर्यकी ! इसी लिये हमारे श्रद्धेय स्वामीजी महाराजने " सत्य के ग्रहण और असत्यके त्यागमें सदैव उद्यत रहना चाहिये " इस द्वितीय नियम रूप सदुपदेश से मनुष्य समुदायको बहुत ही अनुगृहीत किया है ! ऐसे सदुपदेष्टा महात्माका हम जितना आभार माने उतना थोड़ा है ! परंतु जब हम स्वामीजीके "जो जीव ब्रह्मकी एकता जगत् मिथ्या शंकराचार्यका निजमत था तो वह अच्छा मत नहीं और जो जैनियोंके खंडन के लिये उस मतका स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है" इस उपदेशको श्रवण करते हैं तो हमें विवश होकर कहना पड़ता है कि, स्वामीजी महाराजकी सत्यता और निष्पक्षता घरकी चार दीवारी (कोठडी) मात्रमें ही पर्याप्त है। यदि दूसरेको परास्त करने के लिये असत्य पक्षका अवलंबन भी श्रेयस्कर है, तबतो ( क्षमा कीजिये !) औरंगजेबी तलवारको दोषी ठहराना निरर्थक है ! स्वामीजी के इस उपदेश से सत्यासत्य, धर्माधर्म, सदाचार दुराचार, प्रकाश और अंधकार आदिकी मीमांसा 1
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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