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________________ . सूत्र-विभाग-४: 'इच्छामि खमासमरणों को-पाठ २३ . • तित्तीसन्नयराए : तैतीस में से किसी भी ज किचि :: जो 'जिस किसी मिच्छाए : मिथ्या-भाव से की हुई मरण-दुक्कडाए : मन से दुष्ट विचार से की हुई वय-दुक्कडाए - : वचन से दुष्ट कथन से की हुई कार्य-दुकडाए “काया से दुष्ट आसन से की हुई कोहाए मारणाए : क्रोध से की हुई, मान से को- हुई मायाए लोहाए : माया से की हुई, लोभ से की हुई सव्वकालियाए : (इसी प्रकार) सब काल मे की हुई सव्व मिच्छोवयराए · : सब मिथ्या' पाचरणो से पूर्ण । सव्वधम्मा - : सभी' ( क्षमादि धर्म वाले की विनय इक्कमगाए : मर्यादा) का अतिक्रमण करने वाली प्रासायरगाए ': पाशातना से जो मे देवसियो - : मुझे जो कोई दिन सम्बन्धी श्रेइयारो को ? अतिचार लगा हो तो तस्सं खमासमरणो! : उमका, हे क्षमा-श्रमण । प्रडिक्कमामि : प्रतिक्रमण करता हूँ निदामि : निन्दा करता हूँ गरिहामि : विशेष निन्दा करता हूँ अप्पारणं वोसिरामि। : (अपनी आशातना करनेवाली पापी) आत्मा को वोसिराता (त्यागता) हूँ। शिक्षाएं १ वन्दन करते समय कोई पाप-क्रिया न करते हुए पाँच अभिगमन संहित वदन करना चाहिए। २. शरीर मे शक्ति व धुटनो में बल आदि रहते हुए विधिवत् अंग झुकाते हुए
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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