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________________ का तत्त्व-विभाग- तीर्थंकर नाम गोत्र उपार्जन के २० बोल [ २७६ २. सिद्ध वच्छल्लया (सिद्ध वत्सलता) : सिद्ध भगवान करता है । ... .. 00 ३. पवयरण वच्छल्लया ( प्रवचन वत्सलता ) : प्रवचन का ( अर्थात् जैन धर्म या चतुविध सघ का ) करता है । ४. गुरु वच्छल्लया ( गुरु वत्सलता ) : गुरुजी का ( अर्थात् प्राचार्य श्री जी का तथा उपाध्याय श्री जी का ) करता है । ....... poe ५ थेरवच्छल्लया ( स्थविर वत्सलता ) : ( २० वर्ष से अधिक चारित्र पर्याय वाले) स्थविर मुनिराजो का " ........ करता है। ६. बहुस्सुय वच्छल्लया ( बहुश्रुत वत्सलता ) : ( श्राचाराग निशीथ आदि के सूत्र अर्थ तथा दोनो के ज्ञाता ) बहुश्रुत मुनिराजो का करता है । • ७. तवस्सी वच्छल्लया (तपस्वी वत्सलता ) : (एकान्तर, मास मास क्षमरण ( तप ) आदि विकृष्ट (बडी ) तपश्चर्या करने वाले ) तपस्वी मुनिराजो का '''' 'करता है । www ८. भिक्खरणारणोवोगे ( श्रभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ) : सीखे हुए पुराने ज्ञान की बार-वार पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा करता हुआ ( पूछता, फेरता और सोचता हुआ) जीव करता है । ..... ... or & दसरण (दर्शन) : सम्यक्त्व को प्रतिचार रहित शुद्ध ( निर्मल) पालता हुआ जीव करता है ।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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