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________________ २३० ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ इन चारो वचनयोगो का अर्थ (भाषाओ का अर्थ) क्रमश: चारो मनोयोगो के अर्थ के समान है। केवल 'विचार' के स्थान पर 'वचन' समझना चाहिए। काया के सात योग १. औदारिक-योग : औदारिक शरीर का व्यापार । २. औदारिक मिश्र-योग : वैक्रिय, आहारक या कार्माण से मिला हुआ औदारिक शरीर का व्यापार। ३ वैक्रिय योग : वैक्रिय शरीर का व्यापार। ४. वैक्रिय मिश्र-योग : औदारिक या कार्मण से मिले हुए वक्रिय शरीर का व्यापार। ५. श्राहारकयोग : प्राहारक शरीर का व्यापार। ६. श्राहारक मिश्र-योग : औदारिक से मिले हुए आहारक शरीर का व्यापार। ७. कार्मरणयोग : कार्मण शरीर का व्यापार । इन पन्द्रह योगो मे से चार स्थावर-काय और प्रसज्ञी मनुष्य जीवो को १ औदारिक २ श्रौदारिक मिश्र और ३ कार्मरण-ये तीन योग होते है। वायुकाय को '४ वैक्रिय और ५ वैक्रियमित्र' मिलाफर पांच योग होते हैं। द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, और असज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय । को १ व्यवहार भाषा २ औदारिक ३ प्रौदारिक मिश्र और ४ फार्मरण-ये चार योग होते हैं। संज्ञो तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियो को पौर साधुओं को छोड़कर शेष सभी मनुष्यो को, 'पाहारक और श्राहारक मिश्र' छोडकर शेष तेरह योग होते हैं। नारक और देवो को प्रौदारिक और प्रौदारिक मिश्र~ये दो योग और भी छोड कर शेष ग्यारह योग होते हैं। साधुओं मे १५ ही योग प्राप्त होते हैं । ग्यारहवाँ बोल : 'चौदह गुणस्थान ।' गुरणस्थान : मोहनीयादि पाठ कर्मों के कारण आत्मा के सम्यक्त्व आदि गुणो की न्यूनाधिक शुद्धि-अशुद्धि की अवस्था ।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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