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________________ २१८ ] ३. पच्छन्न-कालेरणं (प्रच्छन्न-काल ) ४. दिसामोहरणं (दिशां - मोह) सुवोध जैन पाठमाला - भाग २ ५. साहु-वयरगं ( साधु- वचन ) वोसिरामि । : मेघ, ग्रांची, पर्वत ग्रादि के कारण सूर्य ग्रहश्य होने से, या घडी आदि के अभाव से ६. महत्तरा - गारेणं ७ सव्व-समाहि-वत्तिया - गारेणं B : या अन्य दिशा में पूर्व दिशा की भ्रान्ति के कारण 'सूर्य बहुत ऊपर चढ गया' इस समझ से, या घडी , आदि देखने मे भ्रान्ति हो जाने से : या प्रामाणिक पुरुष के कथन मे भ्रान्ति रह जाने से या घडी आगे होने से काल का ज्ञान शुद्ध न होने पर काल से पहले प्रहार ग्रहरण हो जाय तो ग्राकार (ग्रागार) तथा उग्गए सूरे पुरिम (पूर्वार्ध) श्रव (पार्व) ३. 'पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान पाठ : सूर्य उदय से लेकर : दो प्रहर ग्रर्थात् दिन तक या : तीन प्रहर ग्रर्थात् दिन तक पच्चक्खामि चउव्विह पि श्रहारं - १. प्रसरण २. पा ३. साइमं ४. साइमं । १. अन्नत्यरणा - भोगेणं २. सहसा - गारेग ३- पच्छन्न-कालें ४ दिसा-मोहरणं ५. साहु-वयरणे ६० महत्तरा-गारे ७ः सव्व-समाहि-वत्तिया गारेणं । चोनिरामि । 'पौषी' और 'पूर्वार्ध' के प्रत्यास्थान का पाठ प्रायः समान है । 'पूर्वार्ध' का प्रत्याख्यान विशेष काल का होने से,
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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