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________________ सूत्र-विभाग-१. प्रवेश प्रश्नोत्तरी ५ को पूर्ण नष्ट कर देते हैं। अतः विराधकता और सम्यक्त्वादि के विनाश से बचने के लिए भी प्रतिक्रमण आवश्यक है। प्र० कायोत्सर्ग किसे कहते है ? उ० १ अज्ञान, मिथ्यात्व, अव्रत आदि की सामान्य शुद्धि के लिए अथवा २. अनजान में लगे हुए अतिचारो की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप मे नियत कुछ समय तक देह की ममता छोडकर तीर्थंकरो का ध्यान लगाना। प्र० : कायोत्सर्ग आवश्यक क्यो है ? उ० मार्ग मे चलते हुए जो कांटे पैर मे लगकर घाव करके घाव के भीतर रहे रक्त को विषाक्त कर देते है, उन काँटो को निकालने के साथ उनके द्वारा किये हुए घाव मे रहे हुए विषाक्त रक्त को निकालने के लिए चमडो को इधर-उधर दबाने से होनेवाले दुख के प्रति ध्यान न देते हुए जैसे चमडी को इधर-उधर दबाना आवश्यक होता है, जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर घाव शुद्ध हो जाय, उसी प्रकार अविवेक असावधानी आदि से लगे अतिचारो से जो ज्ञानादि मे घाव पड़ने के साथ रक्त विषाक्त बन जाता है, उसे निकालने के लिए देह-दुख की ममता छोड़कर कायोत्सर्ग करना आवश्यक है जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर ज्ञानादि के घाव शुद्ध हो जायें। प्र० प्रत्याख्यान किसे कहते है ? उ० : १. अज्ञान, अवत, मिथ्यात्व आदि की कुछ विशेष शुद्धि के लिए अथवा २. जानते हुए लगे अतिचारो की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप मे नमस्कार सहित (नवकारसी) आदि प्रत्याख्यान धारण करना अथवा ३. प्रायश्चित्त न लगने पर भी तप के लाभ के लिए प्रत्याख्यान करना ।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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