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________________ १६० ] ज उग्गमेणं उप्पायरणेसरगाए सुबोध जैन पाठमाला~-भाग २ : यो जो उद्गम के आधाकर्मादि १६ : उत्पाद के धात्री आदि १६ दोप तथा एपणा के नकितादि १० दोष लगाये हो, : लगाकर अप्रति शुद्ध (अकल्पनीय) : पाहार ग्रहण किया हो, अपडिसुद्ध पडिगहियं परिभौगैपणा का अतिचार परिभुत्त वा : करके भोग भी लिया हो, जन परिविय : किन्तु परिस्थापनीय न परठा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कड। 'गोयरग्ग-चरियाए' प्रश्नोत्तरी प्र० : अनेपरणीय भिक्षा या जाने के पश्चात् उसे परठना (त्यागना) आवश्यक क्यो? इससे भिक्षा का अपव्यय नहीं होता? उ० : जो अनेपणीय जीवसहित हो और जिसमे से जीवों का निकालना अशक्य हो, तो उसे जीव रक्षा के लिए परठना श्रावश्यक है। जीव रक्षा के लिए देहत्याग भी अपव्यय नहीं है, तो भिक्षा त्याग अपव्यय केसे हो सकता है ? २. व्रती के लिए गृहस्थ ने भिक्षा बनाई हो और प्रती उले ग्रहण कर भोग ले, तो इससे गृहस्थ के दोप का व्रती द्वारा अनुमोदन होता है, उस अनुमोदन के निवारण के लिए भी उसे परठना प्रावश्यक है।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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