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________________ सूत्र-विभाग-२४ 'गामसिज्जाएं प्रश्नोत्तरी १५५ इत्थी पुरिस) : स्वप्न मे स्त्री (पुरुष) के साथ काय विपरियासियाए (या स्पर्श) परिचारपा (काम भोग) __की हो. दिदि-विपरियासियाए . दृष्टि (या शब्द) परिचारणा की हो, मरण-विप्परियासियाए : मन परिवारणा की हो, पारण-भोयरण-दिप्परि० : स्वप्न मे रात्रि भोजन किया हो, जो मे देवसिप्रो : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई दिन अइयारो को सबधी अतिचार लगा हो तो, तस्स मिच्छामि दुवकडं । 'धगाससिज्जाए प्रश्नोत्तरी प्र. • निद्रावस्था जब कि आत्मा स्ववश नही रहती, तब अधिक निद्रा पा जाय या गाढ़ निद्रा आ जाय, तो उसमे आत्मा का दोष क्या? और उसका प्रतिक्रमरण अावश्यक क्यो ? उ० · जिन आत्माओ में शीघ्र जगने की भावना, शीघ्र जगने का सकल्प और प्रमाद की कमी होती है, उन्हे अधिक निद्रा या जगाने पर भी न जागे, ऐसी गाढ़ निद्रा नहीं आती। जिन आत्मवप्रो मे शीघ्र जगने की भावना की मन्दता, सकल्प को मन्दता तथा प्रमाद की अधिकता होती है, जो अति आहार करते है, मृदु मोटो शय्या पर सोते हैं, प्राय उन्हे ही अधिक निद्रा तथा गाढ निद्रा आती है। अतः, 'अधिक निद्रा आना व गाढ़ निद्रर अाना' आत्मा का ही दोष है और इसलिए उन दोषों को मिटाने के लिए अधिक निद्रा और गाढ़ निद्रा का प्रतिक्रमण भी आवश्यक है।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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