SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र-विभाग-२०. 'सलेखना तप' का पाठ [११६ करतंपि अन्नं : करते हुए अन्य का न समगुजारगामि : अनुमोदन भो नही करता हूँ । ऐसे अट्ठारह पाप पच्चक्ख कर सव्व असणं : सब प्रशन पारण खाइमं साइमं : पान, खाद्य और स्वाध-यो चउविहपि : चारो ही आहार पच्चक्खामि : आहार पच्चक्खता हूँ ऐसे चारोपाहार पच्चक्ख कर जि पि य इमं सरीरं, इट्ठ कत पिय मारणं मरणाम धिज्ज विसासियं संमय अणुमयं : और जो यह : शरीर (मुझे) इष्ट (इच्छनीय) था : कान्त (कमनीय) था . प्रिय (प्रेम का करण) था : मनोज्ञ (मनोहर) था : मनाम (मनोरम) था : (मुझे इससे) धैर्य : (मुझे इस पर) विश्वास था : (मेरे लिए यह) समत (माननीय)था : अनु (दोष दिखने पर भी) मत (माननीय) था . : वहुमत (बहुत ही माननीय) था : आभूषण के करण्डिये समान था बहुमयं भण्डकरण्डसमारणं यहां से लेकर 'तिकटु' तक पाठ पादोपगमन (वृक्षमूल के समान एक निश्चल प्रासन से किये जाने वाले अनशन) से अन्य अनशन करते समय न पढ़ें।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy