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________________ सूत्र-विभाग-१५ 'अनर्थ दण्ड व्रत' निबन्ध [ ५ है। सयुक्ताधिकरण से हिंसा प्रदान हो सकता है। उपभोग-परिभोगातिरिक्त से 'हिसा प्रदान और प्रमादाचरण होता है। 'अनर्थ दण्ड व्रत' निबन्ध १ उद्देश्य · अनर्थ दण्ड के प्रति विवेक उत्पन्न करके अनर्थदण्ड रोकना। २. स्थान : अर्थदण्ड की अपेक्षा अनर्थदण्ड का त्याग सरल होने का कारण अनर्थदण्ड विरमण का उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के पश्चात् गुणवतो मे तोसरा स्थान रक्खा गया है। विवेक की अपेक्षा देखा जाय, तो यह व्रत दिग्वत और भोगोपभोग व्रत की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। अत एक स्थान पर इसे गुरगनतो में पहला स्थान भी दिया है। - ३. फल ': सम्पत्ति, समय और शक्ति की बचत हो। बुद्धि व जीवन निर्मल रहे, अविवेकजन्य अकस्मात् दुर्घटना, अग्निकाड आदि न हो। वचन से महाभारत जैसे वैर-विरोध, गृह-युद्ध आदि न हो। लोक, विवेक की प्रशसा करे। जन्मान्तर में उक्त फल के साथ अकारण शत्र न बने, अकारण असत्य आपेक्ष आदि न लगावे, अकारण अन्य कोई छोटी-मोटी आपत्तियाँ न आवें। CE
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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