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________________ पाठ १५-विवेक [५७ निर्दोषचन्द्र ने (यह सुनकर) शीघ्रता से कुरता उतारा। श्रासन खोला। ज्यो-त्यो मुंह पर मुंहपत्ति बाँधी और शरीर पर दुपट्टा डालते हुए कहा । श्रीमान्जी । देखिये, मुझे चोट आ गई है, फिर भी मैंने बिना आपके कहे ही सामायिक ले ली है। मैं कितना विवेकशील हूँ ? ! श्रा० : धन्यवाद ! पर अपनी मुंहपत्ति देखो-कितनी टेढी मेढी है और उसे उल्टी ही बाँध ली है। इसका डोरा भी ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर बाँध लिया है। मुंहपत्ति ठीक करो। और देखो, तुम्हारे नाक में श्लेष्म आ रहा है, वह इस पर भी कुछ लग गया दीखता है-उसे शुद्ध करो। श्लेष्म में समूच्छिम नामक जीवो की उत्पत्ति हो जाती है। हाँ, नाक शुद्ध करते समय भूमि का ध्यान रखना। कही वहाँ जीव न हो, जो श्लेष्म से दब कर मर जायं। श्लेष्म वोसिराने के साथ उस पर धूल-राख आदि डाल देनी चाहिए, ताकि उस पर बैठने पर मक्खी प्रादि उसी में चिपक कर मर न जाय । (निर्दोषचन्द्र नाक शुद्ध करके आ गया। उसके पश्चात्) तुमने कुरता खोल कर दुपट्टा तो पहन लिया, पर पायजामा अब तक पहने हुए हो। सामायिक में धोती पहननी चाहिए और वह भी लांग न लगाते हए पहननी चाहिए। हाँ, एक बात और है। तुम्हें सामायिक की विधि आदि ध्यान में होते हुए भी बिना विधि सामायिक क्यो ली ? पुन. विधि करो और फिर सामायिक लो।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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