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________________ जैन सुवोध पाठमाला~भाग १ L पारना। ३. सामायिक का काल पूरा होने से पहले पारना। ४. सामायिक से उबना ५. सामायिक कब पूरी होगी इस प्रकार विचार करना, बार-बार घड़ी की ओर देखते रहना। ६ वर्ष मे या महीने मे जितनी सामायिके करने का प्रत्याख्यान किया हो, उतनी सामायिकें न करना। ७. सामायिक जिस समय, प्रात , सध्या, पक्षी, (पक्खी) प्रादि को करने का नियम लिया हो, उस समय न करना। इत्यादि । प्र० : अनाचार के समान अतिक्रमादि तोन का 'मिच्छा मि र दुक्कड' क्यो नही ? उ० : अतिक्रम और व्यतिक्रम से अतिचार बड़ा है, अत. अतिचार के मिच्छामि दुक्कड से अतिक्रम व्यतिक्रम का भी 'मिच्छा मि दुक्कड' समझ लेना चाहिये। अनाचार से सामायिक पूरी भग हो जाती है, इसलिए अनाचार के लिए तो फिर से सामायिक करनी पड़ती है। प्र० : सामायिक के गुणादि का कीर्तन कैसे करना चाहिए? उ० : १. सामायिक के लाभ पहले वताए जा चुके हैं। उनका कीर्तन करना। २. सामायिक को बताने वाले अरिहत देव तथा गुरु का कीर्तन करना-जैसे 'धन्य है, अरिहतों को तथा गुरुदेवो को, जिन्होने सामायिक जैसी महान् फलवाली क्रिया वतलाई। ३. सामायिक करके अपने को धन्य मानना-जैसे 'आज का दिन धन्य है कि मैं सामायिक कर सका' । ४. सामायिक की भावना करना-जैसे 'ऐसी सामायिक मुझे प्रतिदिन होती रहे। इत्यादि।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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