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________________ पाठ 8-साधु-दर्शन [३१ और) साधु । लोगुत्तमा = लोकोत्तम हैं । ४ केवलि = केवली। पण्णत्तो-प्ररुपित । धम्मोधर्म। लोगुत्तमो-लोकोत्तम है। इसलिए चत्तारिचार। सरणं शरण । पवज्जामिग्रहण करता हूँ। १ अरिहंते सरणं पवज्जामि-सभी अरिहतो, की शरण लेता हूँ। २ सिद्धे सरणं पवज्जामि - सभी सिद्धो की शरण लेता हैं। ३ साह सरणं पवज्जामि-सभी (आचार्य, उपाध्याय और) साधुनो की शरण लेता हूँ। ४. केवलि पण्णत्तं धम्म सरगं पवज्जामि केवलि प्ररुपित धम की शरण लेता हूँ। मंगल : इसका भावार्थ बताइए। पिता : भावार्थ इस प्रकार है १ अरिहत २ सिद्ध ३. साधु और ४ धर्म-ये चारो मगल हैं, क्योकि सब पापो का नाश करते है। १ अरिहत लोकोत्तम अर्थात् सभी धर्म-प्रवर्तको से उत्तम है, क्योकि वे १८ दोषरहित तीर्थकर हैं। २. सिद्ध लोकोत्तम अर्थात् सभी मत-मान्य सिद्धो से उत्तम है, क्योकि वे आठो कर्म क्षय करके मोक्ष मे पधार गये है। ३. जैन साधु लोकोत्तम अर्थात् सब साधुओ से उत्तम हैं, क्योकि वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के धारक हैं। ४ केवलि प्ररुपित धर्म लोकोत्तम अर्थात् सभी धर्मों से उत्तम है, क्योकि वह सत्य और पूर्ण है।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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