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________________ २८ ] जैन सुबोध पाठमाला~भाग १ पिता : 'मुंह पर बिना सिला एक दुपट्टा लगाना'। मह वोलते हुए वायुकाय की हिंसा न हो, इसलिए इसे मुंह पर लगाया जाता है। दुपट्टा लम्बा करके मुंह के चारो ओर तिरछा गोल भली भाँति लपेट लेना चाहिए, ताकि प्रदक्षिणा देते समय उसे हाथ से पकडे रहना न पडे तथा वह बार-बार नीचे न गिरे। दया : शेष दो अभिगमन कौनसे है ? पिता : चौथा है अरिहत आदि दिखाई देते ही हाथ जोडकर 'अञ्जलि वाँधना' तथा पाँचवाँ है मन को सव ओर से हटाकर जिनका दर्शन करना है, उन अरिहन्तादि मे 'मन को जोडना'। पिता और दोनो पुत्र अभिगमन सहित आचार्यश्री की सेवा मे गये। वन्दना की। दोनो पुत्रो को प्राचार्यश्री ने सम्यक्त्व सूत्र दिया। पीछे मागलिक सुनाई। पिता अपने पूत्रो के साथ दुवारा प्राचार्यश्री को वन्दना करके घर लौट पाये। घर पर आकर दयाचन्द्र ने पिता से पूछा-पिताजी ! वन्दना करने पर साधुजी 'दया पालो' कहते हैं, उसका क्या अर्थ है ? पिता : बेटा । यह प्रश्न तुमने वही आचार्यश्री से क्यो नही पूछा ? दया : मुझे सकोच हो रहा था। पिता : बेटा । प्राचार्यश्री के सामने क्या सकोच ? वे तो हमारे तारक हैं। उन्होने सम्यक्त्व सूत्र के लिए
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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