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________________ - २५४ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ देव द्वारा परीक्षा एक मिथ्यादृष्टि देव को यह बात सहन नही हुई। वह सुलसा की परीक्षा के लिए साधु का रूप बनाकर सुलसा के घर पहुँचा। सुलसा ने उसको साधु समझकर वदन-नमस्कार करके पूछा-'भन्ते । इस समय आपका मेरे यहाँ कैसे पधारना हुया ? देव ने कहा-'श्राविके | मेरे वृद्ध गुरुदेव के शरीर मे बहुत पीडा है। उनकी औपधि के लिए विद्यो ने मझे लक्षपाक तेल बतलाया है। इसलिए मुझे उस तेल की आवश्यकता है। यदि वह तुम्हारे घर शुद्ध (सूझता) हो, तो बहरायो ।' सुलसा ने कहा-'भन्ते । अवश्य कृपा कोजिए। आज का दिन धन्य है कि, मेरे पदार्थ सन्तो की सेवा मे काम आयेगे।' यह कहकर वह लक्षपाक तेल लेने गई। लक्षपाक तैल लाख वस्तुएँ, लाख बार तपाने पर बनता है। उसके वनने मे लाख रुपये व्यय होते है। लक्षपाक तेल की उसके घर मे तीन गीशियाँ थी। वे जहाँ थी, वहाँ पहुँचकर वह पहली शीशी, उतारने लगी कि, शीशी फिसलकर नीचे गिर गई और फूट गई। दूसरी और तीसरी गीगी की भी यही स्थिति हुई। तीसरी बार मे उसके पैर मे काँच का टुकड़ा भी चुभ गया। इस प्रकार उसके लाखो रुपये मिट्टी से मिल गये। शीशी, के कांच का टुकड़ा पैर मे लग गया, सो अलग। पर उसके मन मे इन दोनो बातो का कोई खेद नहीं हुआ। उसे यह , विचार ही नही पाया कि 'ये कैसे साधु है, जिन्हें दान देते हुए, मेरे मूल्यवान पदार्थ नष्ट हो। यह कैसा 'दान-धर्म है ? जिसे करते हुए शरीर मे पीडा हो।' वरन् उसे इस बात का खेद हया कि-'मेरी ये वस्तुएँ सन्तो के काम नहीं आ सकी। मेरे
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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