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________________ कथा-विभाग -६ श्री कामदेव श्रावक [२४७ देवानुप्रिय | मैंने जो पापको उपसर्ग दिये, उसके लिये मैं आपसे बार-बार क्षमा चाहता हूँ। आप क्षमा करे। पाप क्षमा करने योग्य है। अब मैं पुन इस प्रकार कभी आपको उपसर्ग नही दूंगा।' इस प्रकार उस देव ने कामदेव की स्वय प्रशसा की और उन्हे इन्द्र द्वारा की गई प्रशसा सुनाई। (उनको अपने यहॉर आने का और उपसर्ग देने का कारण बताया) तथा उनको उपसर्गों में भी धर्म-दृढ रहनेवाला बताकर उनके पैरो मे पडकर उनसे वार-बार क्षमा-याचना की। फिर वह देवता जहाँ से आया था, उधर ही चला गया। समवसरण में कामदेव ने अपने को निरुपसर्ग (उपसर्ग रहित) जानकर अपना सागारी मथारा पार लिया। दिन उगने पर उन्होने अपनी नगरी में भगवान् को पधारे हुए जाना। इसलिए वे पौषध पालने के पहले ही भगवान के दर्शन करने तथा वाणी सुनने के लिए गये। । भगवान् ने सबको पहले धर्म-कथा सुनाई। फिर धर्मकथा समाप्त होने पर सबके सामने कामदेव से कहा-'क्यो कामदेव । क्या इस पिछली रात को तुम्हे देवता के द्वारा पिशाच, हाथी और सर्प-रूप से तीन-तीन बार भयकर उपसर्ग हुए ?' इत्यादि देवता के आने से लेकर चले जाने तक का बीतक सुना कर भगवान् ने कहा-'कामदेव । क्या यह सच है ?' कामदेव ने कहा-हाँ, सच है।'
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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