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________________ कथा-विभाग-६ श्री कामदेव श्रावक [ २४३ झंझटो से धर्म-चिन्तन और धर्म-करणी मे बहुत बाधा पडती है।' तब उन्होने गृहस्थी का सारा भार अपने बड़े पुत्र पर डाल कर निवृत्ति ले ली। वे अपनी पौषधशाला मे ही जाकर रहने लगे। वही वे पोषध आदि धर्म-ध्यान करते और जातोय कुलो से भिक्षा माग कर अपना काम चलाते थे। पिशाच का पहला उपसर्ग एक बार की बात है। उन्होने पौषध किया था। दिन तो बीत गया, पर जब आधी रात का समय हुआ, तब उनकी पौषधशाला के बाहर एक 'मिथ्यादृष्टि देव' आया । उसने भयकर पिशाच का रूप बनाया। टोपले-सा शिर, बाहर निकली हुई लाल-लाल आँखे, सूपडे-से कान, भेड का सा नाक, घोडे को पूंछ-सी मूंछे, ऊँट के जसे लम्वे-लम्बे ओठ, फावड़े से दाँत, लपलपाती जोभ-इस प्रकार पिशाच का रूप बहुत ही विकृत था। ताड़-सा लम्बा, कपाट-सा चौडा, काँख मे सर्प लपेटे, वह पिशाच हाथ मे चमचमाता नोला, खड्ग (तलवार) लेकर भयावना शब्द करता हुआ पौषधशाला मे कामदेव के पास आया और बोला-'अरे । कामदेव । मृत्यु के चाहने वाले ! कुलक्षण ! अशुभ दिन के जन्मे । लज्जादि रहित ! धर्म-मोक्ष के चाहने वाले ! धर्म-मोक्ष के प्यासे । तुझे पौषध अादि व्रत से डिंगना उचित नहीं है। परन्तु आज यदि तू धर्म से नहीं डिगता है, उसे नहीं छोड़ता है, तो मैं आज इस खड्ग से तेरे खण्ड-खण्ड कर दूगा, जिससे तू अकाल मे ही बहुत दुःख पाता हुआ मर जायगा।' पिशाच-रूपी देव के ऐसा कहने पर कामदेव भयभीत नही हुए, क्षुब्ध नहीं हुए, भागे भी नहो, परन्तु उपसर्ग समझ कर
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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