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________________ २१४ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ मृगावतीजी भी दीक्षित हो गई थी। एक दिन वे कुछ महासतियो के साथ भगवान् महावीरस्वामीजी के दर्शन के लिए 'चन्द्रावतरण' नामक उद्यान मे गई हुई थी। वहाँ पर सूर्यास्त तक चन्द्र और सूर्य देवता उपस्थित थे। उनके प्रकाश से मृगावतीजी को समय की जानकारी न रह सकी। जब वे देवता सूर्यास्त होने पर वहाँ से चले गये, तो मृगावतोजी अन्य साध्वियो के साथ उपाश्रय (सन्त/सतियाँ जहाँ ठहरी हुई हो) पहुँची। वहाँ पहुँचतेपहुँचते अँधेरा हो चला था। चन्दनवालाजी ने प्रतिक्रमण के पश्चात् मृगावतीजी को मौसी होते हुए भी विलम्ब से पाने के लिए योग्यतापूर्वक उपालम्भ देते हुए कहा-'पाप जैसी उत्तम कुल-शीलवाली महासतो को उपाश्रय के वाहर इतने समय तक ठहरना शोभा नहीं देता।' विनय __ मृगावतीजी ने अपने इस अपराध के लिए पैरो मे पडकर क्षमा याचना की । उसके बाद महासतीजी श्री चन्दनवालाजो को तो गय्या पर सोते हुए नीद आ गई, पर मृगावतीजी उनके पैरो मे ही पड़ी अपने अपराध पर वहुत पश्चात्ताप करती रही। अन्त मे इससे उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इधर सोती हुई चन्दनवालाजी का हाथ सथारे से (बिछाये हुए विस्तर से) वाहर हो गया था। उधर एक सर्प या निकला। मृगावतीजी ने केवलज्ञान से वह देख लिया। सर्प हाथ को काट न खावे, इसलिए उन्हाने हाथ को सथारे मे कर दिया। इससे चन्दनवालाजी की नीद खुल गई। उन्होने पूछा-'मृगावतीजी . आप अव तक सोई नही? आपने मेरा हाथ हटाया क्यो ?' मृगावतीजी ने कहा-'हाथ को सर्प से बचाने के लिए।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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